१६६ पकडनेकी बात नहीं लेनी चाहिये।
समाधानः- बिना समझकी भक्ति ऐसा अर्थ नहीं है। समझपूर्वककी भक्ति, ज्ञानीको पहचानकर भक्ति, उनकी महिमा और वस्तु स्वरूप क्या है, उसका मूल प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये, भान तो होना चाहिये। ज्ञानपूर्वककी भक्ति ही यथार्थ भक्ति है। बिना समझकी भक्ति ऐसी भक्ति तो अनन्त कालमें बहुत बार की है। समझनपूर्वककी भक्ति होती है।
और ज्ञान यानी एकदम रुखा ज्ञान, सिर्फ बातें करे और अंतरमें उसके हृदयमें गहराईमें यह सब भिन्न है, मैं भिन्न हूँ, अंतरमें-से उसे विरक्ति न आये और ऐसी बातें करे, उसके बजाय प्रयोजनभूत ज्ञानपूर्वककी भक्ति, ऐसा होना चाहिये। सब लोग ज्यादा जान न सके इसलिये (कहा), ज्ञानमार्ग दूराराध्य (है) अर्थात ज्यादा जान न सके, परन्तु मूल प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये। ज्ञानीकी महिमा करे अर्थात उसमें तेरे आत्माकी महिमा समायी है। तेरे आत्माकी ओर मुडनेका कारण होगा।
मुमुक्षुः- पात्रता प्रगट करनी, वह व्यवहारमें आता है या निश्चयमें? श्रीमदमें भी बहुत जगह पात्रता, आत्मार्थीके लक्षण ऐसा आता है, तो पात्रता प्रगट करनी उसमें आत्मतत्त्व विशेष विकसीत होता है या व्यवहारमें उस जातका भाव आता है?
समाधानः- वह है तो व्यवहार, लेकिन उसमें आत्माका लक्ष्य होना चाहिये। निश्चय तो एक वस्तु मूल शुद्धात्मा वह निश्चय है। उसमें बीच-बीचमें जो भेदके भाव आये वह सब व्यवहार है। परन्तु वह व्यवहार किस जातका है, यह समझना है। निश्चयके लक्ष्यपूर्वकका व्यवहार होता है। बीचमें साधना क्रम आता है वह भी व्यवहार है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेद पडे वह भी व्यवहार है। लेकिन वह साधना तो बीचमें आये बिना रहती नहीं। मूल वस्तु शुद्धात्माको पहचान। उसमें दर्शन प्रगट होता है, ज्ञान प्रगट होता है, चारित्र प्रगट होता है। वह सब व्यवहारके भेद हैं। परन्तु ऐसी साधना व्यवहार तो बीचमें आये बिना नहीं रहता। परन्तु निश्चयपूर्वकका व्यवहार। आत्माका यथार्थ लक्ष्य करके, यथार्थ आत्माको लक्ष्यमें लेकर जो गुण प्रगट हो, वह सब व्यवहार ही है। गुणोंकी पर्याय प्रगट हो (वह व्यवहार है)।
ऐसे प्रारंभमें जो पात्रता आदि है वह सब व्यवहार है। एक मूल अभेद वस्तुके अलावा जो-जो भेद पडे वह सब व्यवहार है। उसमें सदभूत व्यवहार, असदभूत व्यवहार वह सब व्यवहार है। बीचमें जो भेद पडे, पात्रता आये वह भी व्यवहार है। लेकिन वह पात्रता ऐसी होनी चाहिये, जिसमें आत्मा प्रगट हो, ऐसी पात्रता होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- पात्रता न हो तो आत्मज्ञान नहीं होता, यह कथन सत्य है?
समाधानः- सत्य है, पात्रता न हो तो आत्मज्ञान प्रगट नहीं होता।