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मुमुक्षुः- सिर्फ बातें करे, शास्त्र अभ्यास करे ... नहीं तो निश्चयाभास होनेकी संभावना रहती है न?
समाधानः- हाँ, पात्रता बिना वस्तु प्रगट नहीं होती। पात्रता तो होनी चाहिये। प्रयोजनभूत जिसमें आत्मज्ञान प्रगट हो, ऐसी पात्रता तो होनी चाहिये। पात्रताके बिना यथार्थ ज्ञान प्रगट नहीं होता। यथार्थ भेदज्ञान प्रगट नहीं होता। कारण यथार्थ हुए बिना कार्य प्रगट नहीं होता।
मुमुक्षुः- मोक्षमार्ग प्रकाशकमें आता है, निश्चयाभास और व्यवहारभासी। उसमें निश्चयको भी मानता है और व्यवहारको मानता है, जो उभयको मानता है उसको कैसे जूठा कह सकते हैं?
समाधानः- दोनोंको मानता है,...
मुमुक्षुः- व्यवहार व्यवहारकी अपेक्षासे सच्चा है, निश्चय निश्चयकी अपेक्षासे सच्चा है, फिर भी दोनों माननेवालेको हम जूठा कहते हैं, ऐसा कैसे?
समाधानः- दोनों माने तो भी जूठा है। यह भी सच्चा है और यह भी सच्चा। समझे बिना दोनोंको सच्चा माने वह जूठा है। निश्चय किस प्रकारसे सच्चा है? मूल वस्तु स्वभावसे निश्चय सच्चा है। और व्यवहार पर्याय एवं भेदकी अपेक्षासे सच्चा है। जिस प्रकारसे निश्चय सत्य है, उसी प्रकारसे व्यवहार सत्य है। दोनों समानरूपसे सच्चा मानता है। दोनोंकी अपेक्षाएँ समझता नहीं है। दोनोंकी कोटि कैसी है, उसे समझता नहीं है और दोनों समानरूपसे सच्चा है, ऐसा मानता है वह जूठा है।
दोनोंको सच्चा माननेवाला दोनों पर समान वजन देता है। यह भी सच्चा और यह भी सच्चा। दोनोंको समान वजन देता है। किस अपेक्षासे निश्चय मुख्य और व्यवहार गौण है? और प्रयोजनभूत व्यवहार बीचमें आता है। व्यवहारकी अपेक्षा समझता नहीं है और निश्चय मूल वस्तु समझता नहीं है, दोनोंको समान वजन देता है। यह भी सच्चा है और यह भी सच्चा है। वह भी जूठा है। समझे बिना दोनों सच्चा माने वह जूठा है।
दोनों किस प्रकारसे सच्चे हैं, वह समझना चाहिये। दोनोंको समझना चाहिये। मूल वस्तु स्वभावसे निश्चय सच्चा है। व्यवहार उसकी पर्याय अपेक्षासे सच्चा है। क्षणिक पर्याय, जो साधनाकी पर्याय, बीचमें विभाव आये, सदभूत शुद्धात्माकी शुद्ध ... ऐसे सच्चा है। पर्याय नहीं है ऐसा नहीं, पर्याय भी है। उसकी अपेक्षासे व्यवहार सच्चा है। वह मूल वस्तुकी अपेक्षासे सच्चा है। ये तो दोनोंका समान वजन देता है। दोनों मानों कैसे हो, ऐसे वजन देता है, वह दोनों जूठे हैं। एक भी सत्य नहीं है, एक भी समझता नहीं है।