१४ आनन्द आता है, वह आनन्द कोई अनुपम है। सिद्ध भगवानकी जातिका आनन्द है। वह आनन्द अलग ही है। उस आनन्दका स्वयं अनुभव कर सकता है। वह उसे अलग ही हो जाता है कि यह भिन्न ही था और भिन्न ही है। भेद हो जाता है। यह अलग है। आकूलतास्वरूप है उसका उसे भेद हो जाता है। आत्मा है उसका स्वरूप भिन्न है, ऐसा उसे विकल्प छूटकर जो निर्विकल्पताका आनन्द आता है, वह उसे अन्दर भिन्न रूपसे वेदनमें आता है।
मन्द कषाय अथवा भयंकर रोगके कालमें विकल्प करके शान्ति रखे कि मैं जाननेवाला हूँ, यह शरीर मेरा नहीं है, यह विकल्प मैं नहीं हूँ, ऐसी भावना करे तो मन्दरूपसे आकूलता कम होती है, ऐसे विचारमें थोडी शान्ति लगे। लेकिन वह शान्ति अन्दरसे भिन्न होकर आनी चाहिये, वह शान्ति नहीं आयी है।
ज्ञानी तो सविकल्प दशामें हो, उनका उपयोग बाहर हो तो भी उनको अमुक प्रकारसे उनको शान्ति तो रहती है। विकल्प छूटकर जो आनन्द आता है, वह आनन्द तो अलग ही होता है। दोनों भिन्न-भिन्न हो जाते हैं कि यह आत्मा भिन्न, जगतसे भिन्न-निराला (है)। उसका स्वरूप आनन्दमय गुणोंसे अदभूत स्वरूपसे भरा आत्मा भिन्न ही है, ये सब भिन्न हैं। उसे अनुभवमें आता है।