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मुमुक्षुः- परको जाननेकी आकुलता नहीं करे, लेकिन परको नहीं जाननेकी भी आकुलता करना ठीक है कि नहीं?
समाधानः- हाँ, नहीं जाननेकी आकुलता भी... मैं मलिन हो गया, निकाल दो, ऐसा भी नहीं करना चाहिये। शास्त्रमें समयसार कलशमें आता है कि मुझे मलिनता हो गयी, तो निकाल दो, निकाल दो। परन्तु राग निकालनेका है, जाननेका कहाँ निकाल दो, निकाल दो। ऐसा शास्त्रमें कलशमें आता है। जाननेकी आकुलता नहीं करना। जाननेमें आ जाय तो निकाल दो, नाश कर दो। ज्ञानका नाश करना है क्या? ज्ञानका नाश नहीं होता।
अनन्त कालमें जो प्रत्यभिज्ञान पडा है, तो सब जाननेमें पडा है। बचपनसे बडा हुआ तो वह सब ज्ञानमें पडा है। ज्ञानको निकाल दो। कैसे निकालना? स्वभाव कैसे निकल जाता है? पूर्व भवमें-से आया, सब जो-जो हुआ वह ज्ञानमें पडा है। ज्ञानमें आता है तो ऐसे कैसे निकल जाता है। बचपनसे अभी तकका ज्ञान हुआ तो ज्ञानका नाश कर दे, ज्ञान कैसे निकल जाता है? ज्ञान निकलता नहीं है। राग निकलता है, ज्ञान निकलता नहीं है। उसका कैसे नाश होता है?
मुमुक्षुः- पहले अपने यहीं-से-सोनगढ-से बात चलती थी। हम लोग तो दूर- दूर रहते हैं। और जयपुरसे वही बात चलने लग गयी। हम लोगोंकी बुद्धि तो इतनी है नहीं। अभी तक तो यही जानते थे कि जो यहाँ बात चलती है, वही वे चलाते हैं। क्योंकि वे ऐसा कहते हैं कि माल भी गुरुदेवका है, मार्केट भी गुरुदेवका है। उसमें फर्क क्या डलता है, वह हमारी पकडमें नहीं आया था। सो आपसे प्रश्न किया। अब भी कोई विशेष बात हो कि जिससे बचके रहे। हमारे कानमें तो वही पडना है। हमें तो जाना वहीं है और वहीं सुनना है। क्या फर्ककी बात है?
समाधानः- अपनेको विचार करना। विचार करना, अपनी बुद्धिसे विचार कर लेना कि क्या फर्क होता है। गुरुदेवके प्रवचनमें दोनों बात आती है। उसका मेल करना चाहिये। गुरुदेव एक बात नहीं कहते हैं, गुरुदेव दोनों बात करते हैं। उसका मेल करना चाहिये।
मुमुक्षुः- सुनना था आपसे, मेल करना क्योंकि गुरुदेवके प्रवचन आ जाते हैं, प्रवचन गुरुदेवके ही आते हैं। उनकी बात पर चलती है।
समाधानः- सबकी सन्धि करनी चाहिये। शास्त्रमें भी दोनों बात आती है। शास्त्रमें उसका भी मेल करना चाहिये। निश्चयकी बात आये, व्यवहारकी बात आये। जो अपेक्षासे निश्चय है उसको निश्चय। असली स्वरूपमें क्या है, व्यवहार उसमें साथमें कैसे रहता है, सबको जानना चाहिये। वस्तु स्वरूप अनादिअनन्त वस्तु शुद्ध है। बीचमें साधक