या बाहरका कोई निमित्त ऐसा होवे तो कार्य हो, ऐसा नहीं होता है। जो द्रव्यका स्वभाव है तो (उसके) कार्यके लिये राह नहीं देखनी पडती। उसको निमित्त अपनेआप मिल जाता है। जिसको अपना स्वभावका कार्य प्रगट करना है, जिसका अपनी ओर पुरुषार्थ जाता है कि मैं आत्मतत्त्व कैसे पहचानुँ? और स्वभाव परिणति कैसे प्रगट होवे? उसका कार्य जिसे करना हो तो अपनेआप बाहरका निमित्त भी मिल जाता है। और जिसका पुरुषार्थ प्रगट होता है उसे राग नहीं देखनी पडती है। जिसको भावना प्रगट हुयी, जिज्ञासा और पुरुषार्थ प्रगट हुआ उसे, मैं कैसे करुँ? ऐसा निमित्त नहीं है, ऐसा संयोग नहीं है, ऐसे राह नहीं देखनी पडती कि निमित्त मिले तो होवे, या बाहर शरीर ऐसा है, कोई साधन मिले तो हो, (ऐसा नहीं होता)।
जिसको पुरुषार्थ प्रगट होता है, उसको राह नहीं देखनी पडती है। उसको अपनेआप सब संयोग मिल जाते हैं। उसे राह नहीं देखनी पडती है। द्रव्य उसको कहनेमें आता है कि जिसका कार्य करनेके लिये किसीकी राह नहीं देखनी पडती। अपनेमें-से जो उग्रता हुयी, अंतर भीतरमें-से जो उछलता है, उसके लिये कोई निमित्तकी राह नहीं देखनी पडती। भीतरमें-से ज्ञानकी पर्याय, दर्शनकी पर्याय, चारित्र पर्याय उसकी जो परिणति प्रगट हुयी तो भीतरमें बाहरका साधन मिले तो प्रगट हो, ऐसा नहीं होता। अपने आपसे स्वयं चैतन्यकी परिणति चैतन्यमें-से उछले। ज्ञानरूप परिणति, दर्शन, चारित्र अपने आप स्वयं परिणमन हो जाता है। उसको निमित्तकी राह नहीं देखनी पडती। स्वतंत्र कार्य होता है।
मुमुक्षुः- माताजी! प्रज्ञाछैनी पडते ही ज्ञान और राग दोनों जुदा-जुदा हो जाते हैं, तो प्रज्ञाछैनी क्या है और वह कैसे पडती है? और कैसे ज्ञान और राग जुदा- जुदा होते हैं, उसका ...?
समाधानः- प्रज्ञाछैनी, जो चैतन्य स्वभाव है उसको, जो सूक्ष्म स्वभाव है उसको सूक्ष्म करके जहाँ सन्धि है, वहाँ प्रज्ञाछैनी उसको एकदम पहचान लेती है कि यह ज्ञान है और यह राग है। उसको सूक्ष्म उपयोग करके भीतरमें-से ऐसे जान लेती है, भीतरमें तीक्ष्णता करके, तो अपनेआप भेदज्ञान हो जाता है कि मैं चैतन्य हूँ। यह (विभाव) है।
ऐसा भेदज्ञान होनेसे स्वयं परिणति अपने आप स्वयं हो जाती है और स्वानुभूति हो जाती है और विभावका भेद हो जाता है। ऐसी प्रज्ञाछैनी तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनी होने- से स्वानुभूति प्रगट हो जाती है। स्वभावमें दृष्टि-ऐसी प्रतीत, ज्ञान और लीनता तीनों साथमें होनेसे, सूक्ष्म उपयोग होनेसे प्रज्ञाछैनी काम करती है। अपने स्वभावको ग्रहण कर लेती है कि यह स्वभाव है, यह विभाव है। तीक्ष्ण उपयोग करके अपने (स्वभावको)