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फिर भी परिणाममें कुछ ऐसा देखने नहीं मिलता जो आना चाहिये। तो उसका कारण क्या है? माताजी!
समाधानः- परिणाममें क्या..?
मुमुक्षुः- .. अर्पण करके यहाँ बहुत भाई-बहनें, ब्रह्मचारी बहनें अर्पण करके तो बैठे हैं, तो क्यों नहीं मिला? आप कहते हो मेरे पास-से ले जाना। ४५ सालसे तो करके बैठे हैं।
समाधानः- उसमें कुछ क्षति होती है इसलिये। कुछ क्षति रह जाती है।
मुमुक्षुः- तो फिर सर्व भाव अर्पण नहीं किया, माताजी! इसका मतलब हुआ।
समाधानः- मूल वस्तु स्वरूपसे नहीं किया। जैसा ज्ञायकभाव प्रगट करना चाहिये वह नहीं किया। ऐसे सर्व भाव अर्पण किये। जो ज्ञानीके ... ऐसे तो अर्पण किया। स्थूल रूपसे तो कर दिया। भीतरमें भेदज्ञान करके करना चाहिये वह नहीं किया।
मुमुक्षुः- वह नहीं किया, वह कमी रह गयी।
समाधानः- वह कमी रह गयी।
मुमुक्षुः- माताजी! अनुभव होनेके पहले और अनुभवके कालमें और अनुभवके बादमें जो जीवादि सात तत्त्व हैं, उनका किस प्रकारसे चिंतवन चलता है?
समाधानः- अनुभवमें चिंतवन नहीं चलता है। स्वानुभूतिमें विकल्प छूट जाता है। वह तो अपनी एक चैतन्यकी परिणति (होती है)। चैतन्य पर दृष्टि और उसकी परिणति सहज रहती है। स्वानुभूतिके कालमें सात तत्त्वका चिंतवन नहीं रहता है। बाहर उपयोग आवे तब भी भेदज्ञान रहता है। तो सहज नौ तत्त्व आ जाते हैं। मैं जीव हूँ, भेदज्ञानकी धारा (चलती है उसमें) यह अजीव है, यह आस्रव है, जो भाव आता है वह पुण्य है, जो आंशिक शुद्ध पर्याय प्रगट हुयी वह संवर है, उससे विशेष उग्रता निर्जरा है और मोक्ष तो आंशिक मोक्ष है पूर्ण मोक्ष तो जब होवे तब होता है। ऐसे बाहर उपयोग आवे तब रहता है। स्वानुभूतिमें ऐसा विकल्प नहीं रहता।
मुमुक्षुः- सात तत्त्वोंको जानते नहीं अनुभवके कालमें? माताजी!
समाधानः- सात तत्त्वोंको नहीं जानता है अर्थात ऐसे विकल्परूप नहीं जानता है। विकल्पात्मक नहीं है। निर्विकल्प है।
मुमुक्षुः- माताजी! ऐसा आता है कि जितना कारण देवे उतना कार्य होता है। तो इसका क्या मतलब है? जितना कारण देवे उतना कार्य होता है।
समाधानः- जितना कारण देवे उतना ही कार्य होता है। कोई माने कि मेरेके क्यों प्रगट नहीं होता है? तो लगन, महिमा और पुरुषार्थकी कमी होवे तो नहीं प्रगट होता है। जितना कारण-पुरुषार्थकी कमी होवे तो कार्य नहीं होता है। जितना पुरुषार्थ