१८६ होवे उतना कार्य होता है। जितना कारण दे उतना कार्य होता है, विशेष नहीं होता है। मेरी तो रुचि बहुत है, मैं ऐसा करता हूँ तो भी नहीं होता है। तो कारण पुरुषार्थकी कमी है इसलिये नहीं होता है। कारणकी कमी है तो कार्य नहीं होता है।
मुमुक्षुः- कारण कैसे दें? माताजी! कारण कैसा होना चाहिये?
समाधानः- कारण यथार्थ होना चाहिये। जैसा स्वभाव है उस स्वभावको पहचानकरके और यह विभाव है, मैं स्वभाव हूँ, ऐसा कारण प्रगट करना चाहिये। पुरुषार्थ ऐसा करना चाहिये।
मुमुक्षुः- माताजी! धवलमें आता है कि मतिज्ञान केवलज्ञानको बुलाता है। तो ये कैसे बुलाता है? माताजी!
समाधानः- मतिज्ञान जिसको प्रगट होवे तो उसको अवश्य केवलज्ञान प्रगट होता ही है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान जिसको प्रगट हो गया, निर्विकल्प स्वानुभूति (हुयी) तो उसको अवश्य केवलज्ञान प्रगट होनेवाला है। मतिज्ञान केवलज्ञानको बुलाता है कि तू अब आ जा। अनन्त काल हो गया, अब तो मैं प्रगट हो गया, मति-श्रुत कहता है कि आओ केवलज्ञान। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान.. अपने स्वभावकी ओर परिणति गयी, मति- श्रुतने अपने स्वभावको उपयोगमें ले लिया तो केवलज्ञानको बुलाते हैं, आओ, जल्दी आओ। अब मैं तुमको बुलाता हूँ। स्वभावकी ओर जाकर उसको बुलाता है। .. उसको केवलज्ञान हो जाता है।
मुमुक्षुः- माताजी! .. रागादि भावोंका किस प्रकारसे वमन करानवाले हैं?
समाधानः- .. निकले हुए वचन हैं न? तो यथार्थ वचन निकलता है कि भेदज्ञान करो, एकत्वबुद्धि तोडो। ऐसा ज्ञानीका वचन है तो ज्ञानी मिथ्यात्वको वमन कर देता है। उसके वचन कोई अपूर्व, ज्ञानमें-से निकले हुए वचन मिथ्यात्वका वमन कर देते हैं। जिज्ञासुको मिथ्यात्वका वमन कर देता है।
मुमुक्षुः- ... कुटुम्बसे पहले या संयोगसे पहले या शरीरसे या रागसे, शुरू कहाँ- से करना चाहिये?
समाधानः- शुरू तो ऐसे होता है, ये सब तो स्थूल है। कुटुम्बसे भिन्न करना, शरीरसे भिन्न करना वह सब तो स्थूल है। भीतरमें यथार्थ तो विकल्पसे भिन्न करना वह यथार्थ होता है। ऐसे कुटुम्बसे तो मान ले कि ये जुदा है, मैं भिन्न हूँ। ऐसा तो मान ले। शरीर भी स्थूल है। एकक्षेत्रावगाह है तो भी ऐसा तो आता है कि प्रथम सुदृष्टि सो शरीररूप कीजे भिन्न, सूक्ष्म शरीर भिन्न जाने। पहले यह शरीर भिन्न है, स्थूल है, सूक्ष्म शरीर कार्मण शरीर भी आत्माका नहीं है। विभावसे भी भिन्न जानीये।
विकल्प जो आता है उससे भी, सुबुद्धिको विलास भिन्न जानीये। उसमेें प्रशस्त