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भाव आता है वह भी आत्माका मूल स्वभाव नहीं है, वह तो शुभभाव है। ऐसे भी भिन्न है। उसमें भेद पडता है कि मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, यह हूँ ये सब भाव तो आते हैं तो भी विकल्प मिश्रित है। वह भी आत्माका मूल स्वभाव तो नहीं है।
जैसे सिद्ध भगवान निर्विकल्प आनन्दमें विराजते हैं, ऐसा आत्माका स्वरूप है। ऐसी श्रद्धा करना। बीचमें विकल्प तो आता है। परन्तु श्रद्धा ऐसी करना कि सबमें मैं भिन्न हूँ। मेरा स्वभाव सबसे भिन्न, ज्ञायक स्वभाव-ज्ञान स्वभाव ऐसा मेरा स्वभाव है। ज्ञानस्वभावको ग्रहण कर लेना। ये जो जाननेवाला ज्ञानस्वभाव है वह मैं हूँ। पर्यायमात्र, क्षणिक पर्यायमात्र मैं (नहीं हूँ)। मैं अखण्ड शाश्वत जो अनादिअनन्त तत्त्व हूँ, जो ज्ञायकका अस्तित्व है वही मैं हूँ। उसको ग्रहण कर लेना।
उसकी प्रतीति दृढ करना, उसका ज्ञान दृढ करना, उसमें लीनता करनी ऐसे भेदज्ञान होता है। परन्तु भेदज्ञान करनेके लिये उसकी महिमा, उसकी लगन, बारंबार उसका विचार, मनन करे तो होवे। उपयोग तो स्थूल हो रहा है। उसको सूक्ष्म करके ज्ञानस्वभाव कौन है? और विकल्प कौन है? ये भेद पडते हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र। वह भेद तो गुणका भेद है। कोई वास्तवकि टूकडे नहीं है। ये तो जाननेमें आता है। इसलिये भेद पडता है वह भी मूल स्वरूप तो नहीं है। मैं अखण्ड तत्त्व हूँ। ऐसे सूक्ष्म उपयोग करके उसको ग्रहण करना।
परन्तु ग्रहण करनेके लिये तैयारी करनी पडती है। उसको रात-दिन लगन लगे, बारंबार उसका विचार, मनन होवे तब होवे। उसके लिये शास्त्रका चिंतवन, शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और भीतरमें शुद्धात्मा मुझे कैसे प्रगट होवे? उसका ध्येय रखना। निर्विकल्प तत्त्व आत्मा, उसमें आनन्द है, उसमें ज्ञान है, सब उसमें है। उसकी बारंबार प्रतीति, भेदज्ञान, बारंबार नहीं होवे तब तक बारंबार-बारंबार नहीं होवे, भूल जाय तो भी बारंबार उसको ग्रहण करना चाहिये। भूल जाय तो भी बारंबार करना। रात-दिन कैसे प्रगट होवे?
मुमुक्षुः- आत्माकी लगन बारंबार लगनी चाहिये?
समाधानः- हाँ, बारंबार।
मुमुक्षुः- उसीकी महिमा आनी चाहिये।
समाधानः- हाँ, उसकी महिमा आनी चाहिये।
मुमुक्षुः- विकल्पोंसे, संयोगसे हटाकरके आत्माकी लगनी लगनी चाहिये।
समाधानः- हाँ, आत्माकी लगनी लगनी चाहिये। परमें एकत्वबुद्धि है उसे तोडना चाहिये। स्वमें एकत्वबुद्धि करनी चाहिये। बारंबार अभ्यास दृढ होवे, बारंबार-बारंबार उसमें