१८८ दृढता होने-से भेदज्ञान होता है।
मुमुक्षुः- बाहरमें ... आत्मामें ही सुख है। अन्दरसे तो आत्मा जवाब नहीं देता है कि सुख यहीं है। शास्त्रके न्यायसे आत्माके अन्दर संतुष्टि नहीं होती।
समाधानः- शास्त्रमें तो आता है, लेकिन अपने अंतरमें ऐसा दृढ करना चाहिये। शास्त्रमें आता है कि आत्मामें सुख है। तो विचार... गुरुदेव भी कहते थे, बहुत कहते थे कि आत्मामें सुख है। शास्त्रमें आता है। तो भीतरमें ऐसा नक्की करना चाहिये। विचारसे, युक्तिसे नक्की करना कि ये सब आकुलता है। भीतरमें यदि उपयोग सूक्ष्म करके देखे तो सब विकल्प-विकल्प आकुलता है। जो शुभभाव है तो भी आकुलतारूप है। सब आकुलता है। सुख तो आत्मामें है।
सुख-सुख, सुख तो इच्छता है, तो बाहर सुख तो मिलता नहीं है। तो सुख जो तत्त्वमें है, वह तत्त्व मैं हूँ। सुख आत्मामें है, बाहरमें नहीं है। ऐसा भीतरमें यथार्थ नक्की करना चाहिये और प्रतीत दृढ करने-से भीतरमें-से सुख प्रगट होता है। आत्मामें- से होता है। जो सुखका भण्डार भरा है, आनन्दका भण्डार है। आनन्दका सागर आत्मा भरा है, परन्तु वह भूल गया है। इसलिये बाहरमें सुख-सुख लगता है।
जो तत्त्व, जिसका स्वभाव है आनन्द, उसमें कोई मर्यादा नहीं होती। ऐसा अनन्त आनन्दका सागर है। अनन्त ज्ञानका सागर है। ऐसा आत्मा है। उसकी प्रतीति करना चाहिये। प्रतीति करने-से परिणति भी उस ओर जाती है। लगनी लगानी, प्रतीति करनी, परिणति भी उसकी ओर ले जानी चाहिये। अनन्त आनन्द, अनन्त-अनन्त स्वभाव- से आत्मा भरा है। जिसका स्वभाव है, उसमें मर्यादा नहीं है। अनन्त स्वभावसे भरा है। परन्तु वह अपनी दृष्टिमें और प्रतीतमें आना चाहिये।