मुमुक्षुः- ... पहले किस प्रकारसे लक्षण द्वारा...?
समाधानः- भेदज्ञानसे यह मैं हूँ, यह नहीं हूँ। तो दर्शन...?
मुमुक्षुः- किस लक्षणसे?
समाधानः- ज्ञान लक्षणसे ग्रहण होता है। भेदविज्ञानमें ऐसा आता है, यह मैं हूँ। यह ज्ञानलक्षण जिसका है, वह आत्मा मैं हूँ। और विभाव लक्षण है वह मैं नहीं हूँ। जो आकुलता लक्षण है वह विभावका है और जो ज्ञान लक्षण है वह मैं हूँ। उसका लक्षण ज्ञायक लक्षण है। ज्ञायकका जाननेवाला लक्षण वह मैं हूँ। ज्ञानमें शान्ति है, ज्ञानमें सुख है, सब ज्ञानमें है।
शास्त्रमें आता है कि इतना ही सत्यार्थ कल्याण है, इतना ही परमार्थ आत्मा है, जितना यह ज्ञान है। इसमें संतुष्ट हो, इसमें रुचि कर, इसमें तृप्त हो। कोई कहे, अकेले ज्ञानमें सुख और आनन्द? ज्ञानमें सुख और आनन्द भरा है। इसमें तू रुचि कर, इसमें प्रीति कर, इसमें तृप्त हो। जितना ज्ञान है उतना परमार्थ स्वरूप आत्मा है। उसमें कल्याण है। सब इसमें प्रगट होता है। इसलिये जो आकुलता है वह मैं नहीं हूँ, वह विभाव लक्षण है। ज्ञान लक्षण है वह आत्मा है। एक कल्याण स्वरूप है, सत्यार्थ पदार्थ आत्मा है, वही है। ज्ञान, जितना ज्ञान है वह आत्मा है। उसमें दृष्टि करनेसे, भेदज्ञान करनेसे इसमें सुख और इसमें-से आनन्द प्रगट होता है। इसलिये इसमें ही तृप्त हो, इसमें ही रुचि कर, इसमें प्रीति कर। शास्त्रमें आता है।
आत्मामें सब भरा है, संपूर्ण सब इसमें भरा है।
इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।।२०६।।
इसमें सदा प्रीति कर, रुचि कर, संतुष्ट हो, उसमें तृप्त हो। उसमें-से उत्तम सुख प्रगट होगा। अंतर-से प्रगट होगा, किसीको पूछना नहीं पडेगा। तेरे अंतरमें-से सुख प्रगट होगा।
समाधानः- .. परिणामका ज्ञान होता है, परिणामको जानता है। मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप आत्मा ही हूँ, ऐसा ज्ञान होता है। परिणामको जाने वह ज्ञान, ऐसे तो जानता है