१९० तो एक लक्षण जाननेमें आया कि यह परिणाम है, यह परिणाम है, यह परिणाम है। परिणामको जानता है वह आत्मा स्वयं ज्ञायक अस्तित्व है, वही मैं आत्मा हूँ। जो जाननेका अस्तित्व ज्ञायक आत्मा वही मैं हूँ। परिणाम परिणामको जानता है वह तो क्षण-क्षणकी पर्याय होती है, क्षणिक ज्ञान ऐसा नहीं। मैं अखण्ड ज्ञायक स्वभाव हूँ। उसको ...
सबको एक धारावाही अखण्ड जाननेवाला है वह मैं हूँ। ज्ञायक स्वभाव मैं (हूँ)। परिणाम चले जाते हैं। बचपनसे बडा हुआ, ऐसा हुआ, वह सब परिणाम चले गये। जाननेवाला तो वही है, जो जाननेवाला है, बचपनका, उसके बादका, उसके बादका जाननेवाला तो वही का वही है। जाननेका अस्तित्व जो धरनेवाला है, जाननेका अस्तित्व जिसमें वह ज्ञायकका अस्तित्व मैं ही हूँ। विभावपर्याय, विभावको जाननेवाला और एक- एक ज्ञेय खण्ड-खण्ड ज्ञेयको जाननेवाला वह मैं नहीं हूँ, अखण्ड ज्ञायक स्वभाव मैं हूँ। ज्ञायक जाननेका अस्तित्व धरनेवाला वह मैं हूँ।
जाननेवाला परिणामको जानता है, कोई जाननेवाला तत्त्व (है)। परन्तु खण्ड खण्डको नहीं ग्रहण करना, अखण्डको ग्रहण करना। द्रव्य पर दृष्टि करना। विभावपर्याय नहीं हूँ, भेदका विकल्प भी मेरा मूल स्वभाव नहीं है। केवलज्ञानकी पर्याय, अधूरी पर्याय वह भी पर्याय प्रगट होती है, ज्ञानमें जाननेमें आता है, परन्तु मैं अखण्ड शाश्वत अनादिअनन्त द्रव्य हूँ। इसमें कोई विभाव आनेसे उसकी शक्ति मन्द हो गयी, ऐसा नहीं। मैं तो अनन्त शक्ति(वान), जैसा है वैसा ही मैं अनन्त शक्तिस्वरूप आत्मा ही हूँ। साधनाकी पर्याय प्रगट होती है, वह जाननेमें आती है कि इसमें अधूरी, पूरी पर्याय सब होती है। परन्तु मैं अखण्ड ज्ञायक स्वभावी आत्मा हूँ, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
मुमुक्षुः- ... उसके पूर्व कैसे विचार होते हैं? किसका चिंतवन, घोलन रहता होगा? भावना कैसी होती होगी कि जिससे हमारी साधनामें पुष्टि हो?
समाधानः- सबको एक जातिका हो ऐसा नहीं होता। अनेक प्रकार (होता है)। आत्माका ध्येय होना चाहिये। आत्माकी प्राप्ति कैसे हो? आत्मामें-से सुख कैसे प्राप्त हो? यह अंतरमें रहना चाहिये। वांचन किसका होता है? विचार कैसे होते हैं? उस वक्त तो कहाँ दिगंबरके इतने शास्त्र बाहर नहीं आये थे। विचार तो, तत्त्व क्या है? वस्तु क्या है? आत्मा क्या है? आत्मामें सुख है, ये विभावमें सुख नहीं है। उस सम्बन्धित, आत्मा सम्बन्धित विचार होते हैं।
गुरुदेव व्याख्यानमें कोई अपूर्व बात कहते थे कि आत्मा भिन्न है, यह शरीर भिन्न है। ये विकल्प भिन्न, अन्दर आत्मा विराजता है, उसमें निर्विकल्प आनन्द प्रगट होता है। ऐसी बातें गुरुदेव अनेक प्रकारकी करते थे। तू पुरुषार्थ कर तो होता है। कर्म