१९४ हुआ। उसमें उसे सब ज्ञात हो जाता है। एक ज्ञायकको जानने पर उसमें सब आ जाता है।
फिर गहरी-गहरी स्पष्टता तो गुरुदेवके प्रवचनमें धीरे-धीरे आती थी। पहले तो आत्मा भिन्न, अन्दर निर्विकल्प स्वानुभूति होती है, विकल्पसे भिन्न, शुभभावसे भिन्न। समयसार शास्त्र सभामें राजकोटमें पढा। उसके पहले तो श्वेतांबर पढते थे न, उसमें-से सब आत्मा पर कहते थे।
सहज स्वभाव है, उस पर दृष्टि करे। उस पर दृष्टि करके विकल्पसे भिन्न हो तो अंतरमें स्वानुभूति होती है। अन्दर आनन्द सागर प्रगट होता है, ऐसा गुरुदेव बोलते थे तब ऐसा लगता था कि ये आनन्द सागर अन्दर प्रगट होता है, गुरुदेव ये कैसी बात करते हैं? आनन्द सागर प्रगट होता है (तो) अन्दर आत्मामें कैसा आनन्द सागर होगा? ज्ञानका सागर और आनन्दका सागर बोलते थे।
मुमुक्षुः- आनन्द सागर.. किस प्रकारसे उसमें...?
समाधानः- वह तो अन्दरकी स्वयंकी जिज्ञासासे ही सब आगे चलता है। मैं इस ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करुँ, उसमें सब है। ज्ञायकमें सब भरा ही है। स्वयं विचार करे, अन्दरसे प्रतीतिकी दृढता स्वयंको आ जाती है कि इस ज्ञायकके अस्तित्वमें सब (भरा है), ज्ञायक स्वभावमें सब भरा ही है। ऐसा अन्दरसे विचार करके अन्दरसे ऐसी दृढता आ जाती है। ये विभाव मैं नहीं हूँ। स्वभावमें जो हो वह प्रगट होता है। बस, मुझे एक स्वभाव चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। स्वभावका अस्तित्व ही ग्रहण कर लेना। उसीमें सब भरा है।
एक ज्ञायक अस्तित्व मेरा स्वभाव मुझे चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। अन्य सब स्पृहा जिसे छूट जाय। ऐसा निस्पृह होकर एक ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण कर लेता है। उसमें लंबे विचार, विकल्पकी जालको छोडकर अस्तित्वको ग्रहण करके अन्दर लीन हो जाय तो जो हो वह उसे प्रगट होता है। अन्दर आनन्द सागर भरा है। उसमें प्रतीतिमें दृढ हो जाता है कि इसीमें सब भरा है।