मुमुक्षुः- सोनगढ पूरा दिन आये-जाय, यहाँ रहते हों इसलिये सबका आना होता है कि चलिये, एक महिना, दो महिना जिसको जैसी अनुकूलता हो, सब रहने आ जाते थे।
मुमुक्षुः- ... मुमुक्षुः- हाँ, कोई-कोई आता ही है। आखिरमें समयसारकी गाथा सुनते थे। पण्डितजीने रचना की है, ये उपोदघात आदि, अपूर्व बात भरी है। ऐसा बोलते थे। गुजरातीमें भाव... समयसारजीका पद्यानुवाद.. बहुत अच्छा लगता था।
मुमुक्षुः- ... बारंबार पद्यानुवाद बोलते थे। इतना अच्छा लगता था। ... पण्डितजीके लिये कितना अहोभाव। ज्योत्सना आयी तो पूछा, बापूजी! मेरे ससुरको कुछ कहना है? बहुत रोने लगे। बुधवारको। शनिवारको देह छोड दिया। बहुत रोये।
समाधानः- उन्होंने बहुत वर्ष लाभ लिया, आप सबको संस्कार दिये। करना यह एक ही है। गुरुदेवने कहा उस मार्ग पर जाना है। संसारका स्वरूप ऐसा ही है। मनुष्यभव प्राप्त करके अंतर जो आत्माके संस्कार पडे वह लाभरूप है। कितने जन्म- मरण करते-करते गुरुदेवका मिले और यह भेदज्ञान करनेका मार्ग बताया। वह करना है।
ये शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न है। आत्मा तो शाश्वत है। उसके जैसे भाव हो, उस अनुसार आत्मा तो जाता है और शरीर पडा रहता है। प्रत्यक्ष दिखता है। शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। भेदज्ञान प्रथम ही कर लेने जैसा है। विकल्प भी आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्माको पहचान लेने जैसा है।
ऐसे कितने जन्म-मरण किये। स्वयंने किसीको छोड दिया और किसीने (स्वयंको छोड दिया)। शुद्धतासे भरा आत्मा है। एक परमाणुमात्र भी अपना नहीं है। एक रजकण भी अपना होता नहीं और हुआ नहीं। एक रजकणका भी स्वयं स्वामी नहीं है और वह अपना नहीं है। उससे अत्यंत भिन्न आत्मा है। एक परमाणुमात्र भी अपना नहीं है।
"कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे!' परमाणुमात्र अपना नहीं है। स्वयं उससे अत्यंत भिन्न है, उसे पहचान लेने जैसा है। अनन्त कालमें बहुत रिश्ते और सम्बन्ध बनाया, लेकिन वह सब पूरे हो जाते हैं। आत्मा स्वयं जो अनन्त गुणसे