Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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कि मैं स्वरूपकी ओर दृष्टि करुँ, ऐसा करुँ, भावनामें ऐसा आये। परन्तु सहज दशा है, मैं सहजरूप कैसे परिणमित हो जाऊँ? भावना ऐसी होती है, परन्तु बीचमें पुरुषार्थ करुँ-करुँ ऐसा विकल्प तो बीचमें आये बिना रहता ही नहीं। विकल्प तो बीचमें आता ही है। सहज पर दृष्टि करनी। मैं कैसे सहजरूप परिणमित हो जाऊँ? सहज दशा कैसे प्रगट हो? ऐसे। बीचमें आता है। ऐसे ही सहज नहीं हो जाता।

ऐसी भावना आये बिना (नहीं रहती) कि मैं ऐसे भावना करुँ, मैं दृष्टि प्रगट करुँ, चारित्रदशा प्रगट करुँ। ऐसे भावना आये बिना कहीं सहज नहीं हो जाता। सहजको और पुरुषार्थ एवं भावनाके साथ सम्बन्ध है। दोनों साथमें होते हैं। करुँ-करुँके विकल्पके साथ सहज पर परिणति करके सहजरूपसे परिणम जाता है। सहजके साथ सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- जब अंतर्मुख होनेका प्रयत्न करते हैं तो विकल्प पकडमें आता है, फिर आगे कुछ नहीं चलता है। तब क्या करना?

समाधानः- आगे पकडमें न आये तो आगे पकडनेका प्रयत्न करना। और क्या? अन्दर गहराईमें ऊतरना। विकल्प बीचमें आये, लेकिन अन्दर गहराईमें स्वभाव क्या है, उस स्वभावको ग्रहण करना।

मैं सहज ज्ञाता स्वभाव, सहज ज्ञायक हूँ। सहजको ग्रहण कर लेना। विकल्प तो बीचमें आते ही रहते हैं। जबतक सहज प्रगट नहीं हुआ है, तबतक विकल्प बीचमें आते हैं। सहज स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न करना कि मैं सहज स्वभाव ज्ञायक हूँ। उस पर दृष्टि परिणति प्रगट करनेका प्रयत्न करना। (निर्विकल्प) दशा प्रगट करुँ, सम्यग्दर्शन प्रगट करुँ, दृष्टि प्रगट करुँ, ऐसे करना ही आये न। पुरुषार्थमें तो करनेकी बुद्धिके सिवा क्या है?

अन्दर सहज प्रगट करनी है, (ऐसा) स्वयं उसका ध्येय रखना। विकल्प भावनाको और सहज परिणतिको सम्बन्ध है। बीचमें आये बिना नहीं रहता। मैं ज्ञायक कौन हूँ? ऐसे ग्रहण कर लेना। विकल्प तो विकल्पकी दशामें है, इसलिये विकल्प-विकल्प बीचमें दिखे, परन्तु स्वभावको ग्रहण करना।

समाधानः- .. पुरुषार्थ होना चाहिये। करना स्वयंको है। अनादिसे विभावमें दौड जाता है। विभावके संस्कार अनादिके है। ये सब आकुलताके, शरीरके, धनके, कुटुम्बके, विकल्पके, रागके, द्वेषके संस्कार अनादिसे है। उस संस्कारको पलटकर स्वयं आत्मा- ओरकी रुचिके संस्कार करना, वह अपने पुरुषार्थकी बात है। मैं आत्मा हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे स्वयं महिमासे (पुरुषार्थ करे)। ऐसे रुखा-रुखा नहीं, सिर्फ बोलनेमात्र नहीं। अन्दरसे उसे महिमा लगनी चाहिये। ज्ञायकमें ही सब है, आत्मामें सब है, आत्मामें आनन्द है, आत्मामें सुख है। ऐसी महिमापूर्वक स्वयं अपने