Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

२०० संस्कार बदले। वह संस्कार जैसे अनादिके पडे हैं वैसे, मैं चैतन्य हूँ, मैं यह नहीं हूँ, ऐसे स्वयं बारंबार उस संस्कारको दृढ करे तो उस जातके संस्कार उसे प्रगट होते हैं।

एक जिनेन्द्र देव, एक गुरु और एक शास्त्र, वही उसे सर्वोत्कृष्ट लगे। उनके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये। संसार पर-से उसे ममत्व (कम हो जता है)। संसारमें हो तो ममत्व कम हो जाय। सर्वोत्कृष्ट जगतमें हो तो एक जिनेन्द्र भगवान, एक गुरु, जो आत्माका स्वरूप दर्शाते हैं ऐसे गुरु और शास्त्र, जो आत्मस्वरूपका मार्ग बताये। जिस शास्त्रमें गहरीसे गहरी बातें हो, आत्माको मुक्तिका मार्ग मिले ऐसे शास्त्र। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हों तो वह है, अन्य सबकी महिमा उसे छूट जाय। जगतमें अन्य कुछ सर्वोत्कृष्ट या आश्चर्यकारी नहीं है। एक आश्चर्यकारी जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र है। अन्दर एक आत्मा आश्चर्यकारी है, आत्माका स्वभाव आश्चर्यकारी है और देव-गुरु-शास्त्र आश्चर्यकारी हैं। दूसरा कुछ भी जगतमें (आश्चर्यकारी) नहीं है। अन्य सब महत्ता और महिमा उसे छूट जाय। उसे हर जगह धर्म, देव-गुरु और शास्त्रकी मुख्यता रहे, उसे आत्माकी मुख्यता रहे। उसे संसारकी सब गौणता हो जाती है। ऐसी रुचि उसे अन्दरसे होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- यह सब बराबर लगता है, गुरुदेवकी महिमा (आती है), फिर भी रागके परिणाम छूटते नहीं है।

समाधानः- अनादिके संस्कार है न, उसे बदलते रहना।

मुमुक्षुः- बारंबार अभ्यास करना?

समाधानः- हाँ, बारंबार अभ्यास करना।

मुमुक्षुः- मुनिओंको इतना उपसर्ग पडता है तो उन्हें अन्दरसे विकल्प ही नहीं आता है कि मुझे इतना दुःख (हो रहा है)? गजसुकुमालके मस्तक पर अग्नि जलाई, तो उन्हें विकल्प भी नहीं उत्पन्न होता?

समाधानः- उन्हें अन्दर भेदज्ञान प्रगट हो गया है। भेदज्ञानके साथ चारित्रकी दशा (प्रगट हुयी है)। उन्हें, मैं ज्ञायक भिन्न और जो विकल्प आता है कि इस शरीरमें दुःख है, उस रागके विकल्पसे उन्होंने आत्माको भिन्न जाना है। और वे अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन होते हैं। ज्ञानमें जान लिया कि शरीरमें उपसर्ग (हो रहा है) और यह शरीर जल रहा है। ऐसा सहज रागका विकल्प आये वहाँ आत्माको भिन्न कर देते हैं कि मेरा आत्मा भिन्न है, यह विकल्प आता है वह भी मुझसे भिन्न है। ये शरीरमें जो होता है वह होता है, मेरे आत्मामें नहीं होता है। ऐसी परिणति उनको दृढ है। और वे क्षण-क्षणमें स्वरूपमें डूबकी लगाते हैं। स्वरूपमें आनन्दमें लीन होते हैं, इसलिये बाहरसे उनका उपयोग छूट जाता है और अंतरमें लीन हो जाते हैं। अतः बाहर-से उपसर्ग आया, परन्तु वे अंतरमें (लीन हो जाते हैं)। बाहर उपयोग आवे