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... विकल्पकी जाल तो अन्दर चलती है। सूक्ष्म होकर देखे तो विकल्पकी जालमें जाननेवाला विद्यमान है। आँख बन्द करके बैठे तो भी विकल्प-विकल्पकी जाल चलती है। अन्दर देखे तो अन्दर जाननेवाला विद्यमान है। वह जाननेवाला सब जान रहा है। वह जाननेवालेका अस्तित्व है। जाननेवालेका अस्तित्व है वह आत्मा है। लेकिन अन्दर वह उसे पहचानता नहीं है। जाननेवाला है उसमें अनन्त गुण हैं। भेदज्ञान करे, विकल्पसे भिन्न आत्मा है। उसका यथार्थ सूक्ष्म होकर भेदज्ञान करे तो स्वयं स्वयंको देख सकता है, स्वयं स्वयंको वेद सकता है। वह अरूपी होनेके बावजूद वह जाननेवाला जाननस्वरूप है, वह ख्यालमें ले तो जाननेवालेका अस्तित्व उसे ख्यालमें आ सकता है। वह जाननेवालेका वेदन चला नहीं जाता। जो-जो विचार आये उसका जाननेवाला ज्यों का त्यों विद्यमान रहता है।
मुमुक्षुः- ध्यानसे ज्ञात होता है? आत्माको प्राप्त करनेके लिये..?
समाधानः- समाधि, परन्तु उसे ज्ञानपूर्वक समाधि होनी चाहिये। भले अधिक शास्त्र जाने ऐसा नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत तो जानना (चाहिये)। बिना जाने ध्यान करे अथवा कुछ समझे बिना ध्यान करे तो स्वयंको स्वयं पहचानता नहीं है। विकल्प- विकल्प छोडे, फिर कहाँ खडे रहना वह मालूम नहीं। स्वयंको पहचाने कि मैं जाननेवाला हूँ, ये सब विकल्प है। इस प्रकार भेदज्ञान करके यदि ध्यान करे तो उसका ध्यान यथार्थ हो। भेदज्ञान बिना ऐसे ही ध्यान करे तो उसे शून्य जैसा, शून्याकार जैसा हो जाय, तो वह आगे नहीं बढ सकता।
मुमुक्षुः- ऐसे मान लिया कि आत्मा वस्तु सच्ची है, फिर कैसे प्राप्त करना?
समाधानः- सच्ची है, लेकिन उसने ऊपर-ऊपरसे जाना, अन्दरसे उसे उसका स्वभाव पहचानकर जानना चाहिये। ऊपर-ऊपर-से जान लिया ऐसा नहीं, परन्तु अंतरमें उसे भेदज्ञान होना चाहिये। उसे क्षण-क्षणमें जो-जो विकल्प जो-जो कार्य हो, उन सबमें मैं जाननेवाला भिन्न, भिन्न, भिन्न हूँ, ऐसी धारा उसे होनी चाहिये। मैं जाननेवाला भिन्न ही हूँ। ऐसा उसे अन्दरसे भेदज्ञान होना चाहिये, तो उसका ध्यान यथार्थ हो। नहीं तो सब एकत्व (हो रहा है)। भिन्न जानता नहीं है और ध्यान करे तो उसे शून्य जैसा हो जाय। सूक्ष्म-सूक्ष्म विकल्प आवे और उसे भ्रम हो जाय कि मेरे सब विकल्प छूट गये, ऐसा उसे लगे। परन्तु भेदज्ञान करके मैं भिन्न हूँ, इस प्रकार उसे ज्ञान हो तो सच्चा ध्यान हो।
भेदज्ञान करके ध्यान करे। स्वयंको पहचानकर, अपना अस्तित्व ग्रहण करके, तो उसे यथार्थ ध्यान हो। ध्यान सच्चा परन्तु ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। स्वयंको यथार्थरूपसे ध्यान होना चाहिये। पहचान किये बिना ध्यान (करे), वह गधे सीँगकी भाँति, पहचान