२०६ किये बिना ध्यान करे उसका फल यथार्थ नहीं आता।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान प्राप्त करनेके लिये सत्पुरुषका समागम न?
समाधानः- हाँ, सत्समागम चाहिये। गुरुदेव क्या कहते हैं, उस तत्त्वका विचार चाहिये। सत्समागम, तत्त्व विचार, शास्त्रका अभ्यास, अभ्यास अर्थात प्रयोजनभूत स्वयंको पहचाननेका ऐसा (अभ्यास) चाहिये। उसकी महिमा चाहिये, उसकी लगन चाहिये।
मोक्षकी प्राप्ति हो अर्थात आत्मा चैतन्य अकेला निराला हो जाय और अन्दर जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द आदि भरे हैं, वह सब उसके स्वभाव प्रगट होते हैं। अनन्त शक्ति-से भरा आत्मा है। वह स्वयं अंतरमें अपने गुण सहित प्रगट होता है। अनन्त पर्यायें प्रगट होती हैं, अनन्त निर्मलता, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त बल अनन्त स्वरूप उसका प्रगट होता है। उसकी दृष्टि अलग हो जाय। स्वयं चैतन्य स्वरूपमें चैतन्यलोकमें चला जाता है। चैतन्य स्वरूपमें-से उसे अनन्त गुण प्रगट होते हैं। अनन्त-अनन्त स्वभाव प्रगट होता है।
मनुष्य गतिमें, प्रगट मनुष्य गतिमें होता है। परन्तु कहीं उसने उपदेश सुना हो। अनन्त कालमें जीवने एक बार कोई देवका, गुरुका उपदेश सुना हो और उसे अन्दर ग्रहण किया हो तो उतना अंतरमें हो तो उसे प्रगट होता है। फिर दूसरे भवमें उसे कोई भी गतिमें प्रगट होता है, तैयारी करे तो। बाकी केवलज्ञान तो मनुष्यगतिमें ही होता है। .. गतिमें प्रगट होता है। इस मनुष्य गतिमें तैयारी करे।
समाधानः- ... पहले श्रद्धा यथार्थ करनी कि पुण्यभाव और पापभाव दोनों विभावभाव है। ऐसे श्रद्धा यथार्थ करनी। एक ज्ञायक स्वभाव निर्विकल्प तत्त्व, जिसमें कोई विकल्प नहीं है। ऐसा ज्ञायकतत्त्व मैं हूँ, उसकी श्रद्धा करके उसमें लीनता करनी, उसीसे धर्म है। श्रद्धा यथार्थ ऐसी होनी चाहिये। फिर जबतक अतंरमें स्वयं लीन नहीं हुआ है और उस जातकी परिणति नहीं हुयी है, तबतक बीचमें शुभ परिणाम आते हैं। परन्तु वह शुभ परिणाम अपना स्वभाव नहीं है। वह आकुलतारूप है, ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये। परन्तु जबतक उसे अंतरमें उतनी परिणति प्रगट नहीं हुयी है, तबतक बीचमें शुभभाव- देवके, गुरुके, शास्त्रके ऐसे शुभभाव आते हैं। परन्तु वह उसे ऐसा नहीं मानता है कि इसीसे मुझे लाभ, सर्वस्व लाभ होता है, ऐसा नहीं मानता है।
श्रद्धा उसे ऐसी होनी चाहिये कि दोनों भावसे न्यारा मैं चैतन्य निर्विकल्प तत्त्व हूँ। परन्तु जबतक अंतरमें प्रगट नहीं हुआ है, तबतक बीचमें देव-गुरु-शास्त्रके विचार आये बिना नहीं रहते। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभावमें जिनेन्द्र देव, गुरु और श्रुतके विचार, शास्त्रके विचार उसमें बीचमें आते हैं। परन्तु वह आत्माका मूल स्वभाव नहीं है। ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये। प्रथमसे ही सब छूट नहीं जाता, परन्तु उसे श्रद्धा होती