२१० अर्पण हो जा तो मोक्ष प्राप्त होगा ही। सब परसे राग छोडकर, कर्ताबुद्धि छोडकर गुरु पर श्रद्धा करके अर्पणता कर और चैतन्य पर अंतरमें श्रद्धा करके लीनता कर तो मोक्ष प्राप्त होगा ही।
मुमुक्षुः- शहरके वातावरणमें रहकर कैसे आत्म-कल्याण करना?
समाधानः- शहरका वातावरण हो तो भी करना तो स्वयंको है। वह वातावरण आत्माको कहीं नुकसान नहीं करता है। अपना उपादान तैयार करकेत तत्त्वका विचार, वांचन, लगन, विशेष पुरुषार्थ करके जो क्षेत्र है उस क्षेत्रकी असर नहीं लेकर अपना विचार करना। अपनी लगन लगाना, तत्त्व विचार करना, ऐसा करना। जिसका पुरुषार्थ मन्द है उसको सत्समागम निमित्त आदि होता है, परन्तु यदि नहीं मिलता है और दूर रहता हो तो अपनी तैयारी करना, भीतर-से तैयार रहना।
देव-गुरु-शास्त्रका समागम मिले तो विशेष अच्छा है। तो अपना उपादान पुरुषार्थ करनेमें सुलभ रहता है। तो भी नहीं होवे तो अपना पुरुषार्थ विशेष करना। जहाँ भी करना है, अपने-से करना है। जिसका पुरुषार्थ मन्द है उसको निमित्त देव-गुरु-शास्त्र होते हैं, निमित्त-उपादानका सम्बन्ध होता है। परन्तु नहीं होवे तो पुरुषार्थ विशेष करना। तत्त्व विचार करना, सत्संग करना सब करना। जहाँ सत्संग मिले वहाँ जाना। ऐसा करना।
मुमुक्षुः- ... निमित्त कुछ करे नहीं। मन्द पुरुषार्थ हो तो सत्पुरुषका निमित्त उसे कुछ करे।
समाधानः- निमित्त कुछ करता नहीं, परन्तु अपना पुरुषार्थ मन्द है इसलिये उसे निमित्त कहनेमें आता है, करना तो स्वयंको है।
मुमुक्षुः- ये तो इस बार मैंने डेढ महिनेमें देखा कि यहाँ रहकर जो पुरुषार्थ जो विचार चलते हैं, एक महिना वहाँ गये तो वहाँ फर्क पड जाता है, ऐसा लगता है। सिद्धान्तकी ... नहीं है। लेकिन ऐसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध देखे तो ऐसा लगे कि यहाँ रहते हैं एक ही विचार आते हैं, और वहाँ अनेक प्रकारके विचारमें उलझना पडता है, ऐसा बनता है।
समाधानः- ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। असर स्वयं ग्रहण करता है। निमित्तकी असर स्वयं ग्रहण करता है। अच्छे निमित्तमें स्वयं ही असर ग्रहण करता है, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। इसीलिये कहनेमें आता है, तू सत्संगमें रहना, सदगुरुका श्रवण, मनन इत्यादि करना। क्योंकि निमित्त-उपादाका सम्बन्ध है। निमित्त करता नहीं है, परन्तु स्वयं उपादान उसे ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- सत्समागममें स्वयं ग्रहण करता है।