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समाधानः- स्वयं ग्रहण करता है। अपनी रुचि जिस ओरकी है उस तरफका ग्रहण कर लेता है। अन्य निमित्तोंमें उसका पुरुषार्थ मन्द है इसलिये स्वयं ही ग्रहण करता है। निमित्त नहीं करवाता है, लेकिन स्वयं ही वैसा ग्रहण कर लेता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, क्षेत्र वैसा, काल, ऐसे ज्ञानी, सत्संग आदि हो तो स्वयंको विचार करनेमें अपनी रुचि उस ओरकी है न, इसलिये स्वयंके पुरुषार्थका झुकाव उस ओर होता है। दूसरेमें अपना मन्द पडता है।
... सोनगढ छोडकर कहीं जानेका मन नहीं होता है। कुछ मन ही नहीं होता है।
समाधानः- सम्यग्दृष्टिको यथार्थ ज्ञान होता है न, भेदज्ञान। ज्ञायक-ज्ञायककी परिणति जो प्रगट होती है, द्रव्य पर दृष्टि, उसका ज्ञान, उसमें लीनता और क्षण-क्षणमें भेदज्ञान- मैं न्यारा हूँ-ऐसी भेदज्ञानकी परिणति रहती है। यथार्थ ज्ञान रहता है। और वैराग्य ऐसा रहता है। विरक्ति-विभावसे विरक्ति रहती है, विभावमें एकत्वबुद्धि नहीं होती है। विभाव और मेरा स्वभाव दोनों भिन्न हैं। इसलिये विभावसे उसको विरक्ति रहती है। क्षण- क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। विभावमें एकत्वबुद्धि, कोई रागादि भावोंमें एकत्वबुद्धि नहीं रहती है, विरक्ति रहती है। उसमें तल्लीनता नहीं होती है। स्वभावमें स्वभावकी ओर लीनता रहती है और विभावसे विरक्ति होती है। ऐसी ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति सम्यग्दृष्टिको होती है।
गृहस्थाश्रममें होवे तो भी बाह्य कायामें और विभाव परिणाम होवे तो भी एकत्व नहीं होता। उसमें तल्लीन नहीं होता, उससे भिन्न रहता है। मैं चैतन्य हूँ, ऐसा अस्तित्व ग्रहण करे, विभावसे नास्ति-विभावस्वरूप मैं नहीं हूँ, ऐसी न्यारी परिणति रहती है, उसको विरक्ति-वैराग्य भाव रहता है। ऐसी ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति, क्षण-क्षणमें भेदज्ञान रहता है।
ऐसी कोई ज्ञान-वैराग्य अदभुत शक्ति उसको रहती है। इसलिये उसको बन्ध नहीं है। अल्प बन्द होता है उसकी गिनती नहीं है। और एकत्वबुद्धि नहीं होती है। अज्ञान दशामें विभावमें एकत्व हो जाता है, ऐसा एकत्व नहीं होता है। क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ऐसी न्यारी परिणति उसको रहती है। बाह्य कोई कार्यमें, कोई प्रसंगोंमें, कोई रागादिमें एकत्व नहीं हो जाता है, भिन्न रहता है।
ऐसा उसको वैराग्य रहता है, उसका ज्ञान रहता है। राजकार्य, घर, कुटुम्ब, परिवार सब होता है, सब कार्यमें बाहरसे देखनेमें आता है तो भी भीतरमें वैराग्य-विरक्ति रहती है। उसमें एकत्व नहीं होता है। क्षण-क्षणमें उसकी परिणति ज्ञायककी ओर जाती है। ज्ञायककी लीनताकी ओर परिणति जाती है, राग-ओर नहीं जाती है।