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मुमुक्षुः- परिणति ज्ञायक तरफ जाती रहती है।
समाधानः- क्षण-क्षणमें ज्ञायक तरफ जाती है। बाह्य कायामें अन्दर जो विकल्प आये तो परिणति ज्ञायककी ओर जाती है, विकल्पमें एकत्व नहीं होता है। तन्मय नहीं हो जाता।
मुमुक्षुः- बाहरमें... फिर भी वीतराग परिणति तो उसका कार्य रहती है।
समाधानः- परिणति कार्य करती है। बाहर-से दिखे कि बाहरके कायामें वह जुडा है। उसमें मानों एकत्व हो रहा है। ऐसा दिखे। उसकी परिणति तो भिन्न-न्यारी कार्य करती है।
मुमुक्षुः- उपयोगरूप परिणमन और लब्धरूप परिणमन, इन दोनोंमें लब्धरूप परिणाममें ऐसा कार्य चलता रहता है?
समाधानः- लब्धरूप परिणाममें ऐसा कार्य होता है। लब्ध अर्थात उघाड एक ओर पडा रहा है ऐसा नहीं है। परन्तु कार्य चलता रहता है। उपयोगरूप तो स्वानुभूति दशा, परन्तु ऐसा लब्धरूप कार्य भी चलता ही रहता है। क्षण-क्षणमें विरक्ति, अंतरमें न्यारा रहता है। कोई भी कार्य, कोई भी विकल्प (हो), वह क्षण-क्षणमें भिन्न रहता है। उतने अंशमें शान्तिका वेदन, ज्ञायककी धारा वह सब उसे वेदनमें रहता है। लब्ध यानी एक ओर पडा है ऐसा नहीं। ज्ञायकका, शान्तिका वेदन चलता है। इसलिये उसे बन्ध नहीं होता है, ऐसा कहनेमें आता है। अल्प बन्ध होता है उसे गिनतीमें नहीं लिया है।
भिन्नत्व बढते.. बढते.. बढते उसमें-से उसकी भूमिका पलटती है। पाँचवी, छठ्ठी, सातवीं (भूमिकामें) आसक्ति कम होती है और विरक्ति बढते-बढते उसकी भूमिका बदलती है। छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान, उसमें-से भूमिका पलट जाती है। अन्दरकी विरक्ति बढे, अन्दर लीनता बढे इसलिये स्वानुभूतिकी दशा बढती है। उन सबका मेल है। ज्ञाताधाराकी उग्रता होती जाती है। उसमें शास्त्रका ज्ञान ज्यादा हो, न हो, उसके साथ सम्बन्ध नहीं है, परन्तु अन्दरकी विरक्तिके साथ सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- विरक्तिके साथ लीनताका मेल है?
समाधानः- हाँ, उसके साथ मेल है।
समाधानः- ... तत्त्वके विचार होते हैं, सम्यग्दृष्टिकी अलग बात है, वह तो यथार्थरूपसे न्यारा हो गया है, परन्तु भूमिकामें भी उसे आसक्ति (कम हो जाती है)। उसे रुचि परपदाथाकी, विभावकी महिमा कम हो जाय, उसमें तल्लीनता कम हो जाय। अभी उसे ज्ञाताधारा नहीं है, परन्तु उसे अन्दर कम हो जाती है, तल्लीनता कम हो जाती है, उसकी महिमा कम हो जाती है। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक ही सर्वस्व है, वही