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महिमा करने योग्य है और वही महिमारूप है। ऐसी अंतरमें रुचि होनी चाहिये। रुचि उसकी ओर होनी चाहिये। अभी परिणति प्रगट नहीं हुयी है, परन्तु वैसी रुचि, ज्ञान- वैराग्य, तत्त्वके विचार, मैं ज्ञायक हूँ, ये सब मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे तत्त्वके विचार होने चाहिये और उस ओरकी लीनता-तन्मयता कम होनी चाहिये। उस ओरकी रुचि कम हो जाय।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन होने पूर्व भी ऐसा होता है।
समाधानः- ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- सविकल्प भावभासन हो..
समाधानः- उसे रुचिरूप है, परिणतिरूप ज्ञायककी धारा नहीं है। रुचि (है)। करनेका यह है, ज्ञायकता प्रगट करनी है, महिमारूप ज्ञायक है, ये स महिमारूप नहीं है। अतः बाहरकी रुचि उठ जाती है।
मुमुक्षुः- रुचिमें ऐसे कोई प्रकार पडते होंगे कि .... भाव-से प्राप्त कर ले? ऐसी सविकल्प दशामें रुचि..
समाधानः- ऐसा यथार्थ कारण हो तो यथार्थ कार्य आये। वैसा रुचिका कारण प्रगट करे तो जिसमें अवश्य सम्यग्दर्शनका कार्य प्रगट हो। ऐसा यथार्थ कारण हो, स्वसन्मुखता, उस जातका मार्गानुसारीपना हो तो प्रगट होता है। कारण उसका यथार्थ हो तो कार्य आवे।
मुमुक्षुः- वह करते-करते आयुष्य पूर्ण हो जाय तो?
समाधानः- तो उसे ऐसी धारा अप्रतिहत हो तो दूसरे भवमें होता है। पुनः स्फूरायमान होता है। ऐसी अंतरकी गहरी रुचि की हो तो पुनः स्फूरायमान होती है। ऐसे विचार स्फूरायमान हो, ऐसे साधन प्राप्त हो कि जिससे पुनः पुरुषार्थ जागृत हो। यथार्थ कारण हो तो कार्य आवे। देर लगे किन्तु आये।
मुमुक्षुः- वर्तमान ज्ञान तो भव प्रत्ययी कहनेमें आता है। यह पूरा होते ही..
समाधानः- अन्दर यदि रुचि यथार्थ की हो तो वह रुचि (जागृत होती है)। उसकी कारणरूप रुचि हो तो प्रगट होता है। तत्प्रती प्रीति चित्तेन, आता है न? प्रीति- से भी वार्ता सुनी है, अंतरकी रुचिपूर्वक, कोई अपूर्व रुचिपूर्वक उसने यदि अंतरमें वार्ता ग्रहण की है तो भावि निर्वाण भाजनम। तो भविष्यमेें वह अवश्य निर्वाणका भाजन है। इतना धारणा की हो या इतना रटा हो ऐसा नहीं, परन्तु अन्दर प्रीति-से वार्ता सुनी, अन्दर रुचिपूर्वक यदि ग्रहण किया है तो भविष्यमें वह निर्वाणका भाजन है।
मुमुक्षुः- धारणाज्ञान ..
समाधानः- रुचि, अंतरकी रुचि (होनी चाहिये)। उसके साथ ज्ञान होता है।