Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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वैसे भिन्न तो है ही, परन्तु प्रगटरूपसे भिन्न पड जाता है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात है। बारंबार यह अभ्यास करके भिन्न पडनेका प्रयत्न (करना), सब आगमका सार कहें तो यह एक ही है।

समाधानः- यह एक ही है।

मुमुक्षुः- प्रयोजनभूत द्रव्य-गुण-पर्यायका ज्ञान करके, ज्ञानके पहलू अधिक स्पष्ट न करे, .. ज्ञानमें हो जाती हो, सूक्ष्मपने तत्त्वज्ञानका कोई भी विषय हो उसका निर्णय न कर सकता हो अथवा उसका वह विश्लेषण नहीं कर सकता हो, परन्तु मूलभूत तत्त्वको जानकर उससे भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे तो हो सकता है?

समाधानः- हो सकता है। मूलभूत प्रयोजनभूत तत्त्व-मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा नक्की करके ये विभाव मैं नहीं हूँ, मैं अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य अनन्त गुणसे भरा हुआ और क्षण-क्षणमें पलटे वह पर्याय, बस! इतना ज्ञान करके अपनी ओर जाय तो उसमें कोई विशेष ज्ञान न हो तो उसमें कुछ जरूरत नहीं पडती।

मुमुक्षुः- गोते ही खाते हैं न। हम वहाँ है। हम यानी हमारे सब भाई। क्षयोपशम ज्ञानमें खडे हैं, ...

समाधानः- सबका प्रयोजन एक ही है कि भेदज्ञान करना।

मुमुक्षुः- भाई कहते हैं, जूठे ही गोते खाते हैं। विषय बनाते हैं, परन्तु इतना तो गुरुदेव देकर गये हैं।

समाधानः- कितना दिया है। भेदज्ञानका प्रयोजन है।

मुमुक्षुः- वह करता नहीं है और बातें करता रहता है।

समाधानः- हाँ, ऐसा है, वैसा है, ऐसा है, ऐसा है।

मुमुक्षुः- क्रमबद्धपर्यायमें उलझ जाय। उसे उलझना है, अटकना है इसलिये कहीं न कहीं...

समाधानः- कहीं-कहीं अटक जाता है। प्रयोजन ज्ञायकको प्रगट करना वह है।

मुमुक्षुः- समय-समय उसका..

समाधानः- उसका रटन रखने जैसा है।

मुमुक्षुः- क्या बाकी है? उसमें क्या समझना है?

समाधानः- समयसारमें आता है कि ज्ञानमात्र आत्मा, ऐसी तू रुचि कर, ऐसी प्रीति कर, उसमें उसीका अनुभव कर तो उसमें-से प्रगट (होता है)। जितना ज्ञानमात्र है उतना ही मैं हूँ। जितना ज्ञानमात्र वही मैं हूँ। "इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे।' उसमें तू संतुष्ट हो। उसीमें सब है, उसमें संतुष्ट हो। उसमें सदा संतुष्ट हो, उसीमें-से सब प्रगट होगा। "इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।' उसमें