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है। कल्याण अंतर दृष्टिमें है।
मुमुक्षुः- ... ज्ञानमें पर भिन्न है और मैं ज्ञायक भिन्न हूँ, राग मेरा स्वरूप नहीं है, वह भी मेरेसे (भिन्न है), ऐसा बारंबार अभ्यास करनेसे उसके प्रति विरक्ति भाव सहज ही आ जाता होगा?
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ और यह भिन्न है, राग भिन्न है। ऐसा बारंबार करनेसे विरक्ति भाव आये, ऐसा नहीं। जिसे अंतरमेेंसे उसका रस छूट जाये, उसे भेदज्ञानका बारंबार अभ्यास चलता है। प्रयास करनेसे विरक्ति आये ऐसा भी होता है और विरक्ति हो तो उससे भेदज्ञानका अभ्यास हो। ज्ञायकमें सब है, सबकुछ ज्ञायकमें है, सब ज्ञायकमें है, यह राग तो आकूलतामय है। इसप्रकार रागसे स्वयं पीछे हटे तो अन्दर मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं, मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं। जिसे रागका रस है वह रागसे भिन्न नहीं पडता। जिसे रागका रस छूट जाता है, वह रागसे भिन्न होता है।
रागसे भिन्न पडनेका प्रयत्न कब करे? कि रागका रस छूटे तो रागसे छूटनेका प्रयत्न करे। रागमें रस, एकत्वबुद्धि हो वह भिन्न नहीं पडता। रागका रस छूटकर अंतरमें ज्ञायकका रस लगे, ज्ञायककी महिमा लगे, ज्ञायकमें ही सबकुछ है। ज्ञायकका रस लगे, उसकी रुचि लगे और रागका रस छूटे तो उससे भिन्न पडता है।
मुमुक्षुः- रागका रस छूटे कि राग आकूलतारूप है,...
समाधानः- आकूलतारूप है। सुखरूप नहीं है, आकूलतामय है। मेरा स्वभाव नहीं है। स्वयंको ऐसा निश्चय हो, उसका रस छूटे, ऐसी प्रतीत आये तो उससे भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। सच्ची यथार्थ प्रतीति अलग है, परन्तु पहले भी उसे रागका रस छूटे, यह मेरा स्वभाव नहीं है, आकूलतारूप है, दुःखरूप है, ऐसा उसे लगे तो उससे छूटनेका प्रयत्न करे। और उससे भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे। मैं ज्ञायक जानने वाला, मैं सबसे उदासीन, यह मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। और इस ओर ज्ञायककी महिमा आये तो रागका रस छूटे। ज्ञायककी महिमा आये तो ही उसका रस छूटे। राग आकूलतारूप लगे। समस्त प्रकारका विभावभाव आकूलतारूप है, ऐसा उसे अंतरसे लगे।
वह आगे नहीं बढ सके और शुभभावमें खडा रहे, वह अलग बात है, परन्तु उसे प्रतीतमें ऐसा लगे कि सब आकूलतारूप ही है। अन्दरसे बराबर श्रद्धा होनी चाहिये। तो उसे भिन्न पडनेका प्रयत्न (चले)।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- वह तो विशेषता ही है। जैनदर्शन यथार्थ है। एक-एक पक्ष। कोई आत्माको एकान्त-एकान्त कहता है। एकान्त नित्य कहे, कोई एकान्त अनित्य कहता