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समाधानः- उतना ही सत्यार्थ परमार्थ है, जितना ज्ञान है। उसमें तृप्त हो, उसमें संतुष्ट हो।
मुमुक्षुः- इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे। ऐसी गाथा है।
समाधानः- हाँ, "इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।' और गुरुदेव भी यही कहते थे कि ज्ञान है वह तू है। अर्थात ज्ञायक सो तू है। ज्ञानमात्रमें सब आ गया। ज्ञानमात्रमें आचार्यदेव कहते हैं, सब आ गया। उसमें तृप्त हो, उसमें संतुष्ट हो, तुझे सुख (प्राप्त होगा)। ज्ञानमात्र कहकर ज्ञायक कहते हैं। उसमें अनन्त गुण भरे हैं, उसमें अनन्त आनन्द भरा है। सब उसमें भरा है। अतः असाधारण आत्माका ज्ञानगुण जो लक्षण तुझे पहचानमें आता है, उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान ले। बस! उसीमें सब भरा है।
मुमुक्षुः- अकेले ज्ञानको मुख्य करके बात की है, परन्तु अनन्त गुणका पिण्ड ऐसा जो ज्ञायक, उसे दृष्टिमें लेनेके लिये वह दर्शाया है।
समाधानः- हाँ, उसे दृष्टिमें लेनेके लिये, पूरा ज्ञायक ग्रहण करनेके लिये। अनन्त गुणका अस्तित्व ज्ञायकरूप है, उसे ग्रहण कर। ज्ञायक, उसमें पूरा द्रव्य आ जाता है।
मुमुक्षुः- पहले विकल्प हो, बादमें विकल्पका अभाव हो जाता है?
समाधानः- पहले निर्विकल्प तत्त्वकी यथार्थ प्रतीति होती है कि यह ज्ञायक है वह मैं हूँ। ऐसी यथार्थ प्रतीति होती है। बीचमें विकल्प तो होते हैं, परन्तु बारंबार उसका अभ्यास करे, उसकी लीनता करे, उसकी प्रतीतिको दृढ करे तो निर्विकल्प होता है। बारंबार उसकी भेदज्ञानकी धारा उग्र करे तो निर्विकल्प हो।
मुमुक्षुः- उतावलीसे..
समाधानः- उतावलीसे नहीं। धैर्य, शान्ति, भावनासे और जिज्ञासासे। आकुलतासे नहीं, परन्तु उसकी भावना उग्र हो, जिज्ञासा हो, परन्तु धैर्यसे पुरुषार्थ करे। आकुलता करने-से नहीं होता। बारंबार गुरुदेवके उपदेशमें वही आता था।
मुमुक्षुः- कुछ भी पढे, दस पंक्ति पढे, लेकिन उसमें-से मुख्य बात यह आये, पूरा प्रवचन पढे तो भी यही बात आये। कर्तृत्वकी बात कहीं आये ही नहीं। ज्ञानकी बात आये। इसमें-से पद्धति क्या? आज बहुत अच्छा स्पष्टीकरण हुआ।
समाधानः- तू कर्ता नहीं है, परन्तु ज्ञाता है ऐसा आये। तू ज्ञानको ग्रहण कर।
मुमुक्षुः- ... वैसे तो कर्ताबुद्धि मन्द पडती है। परन्तु जानता हूँ, वह तो मेरा स्वभाव है। फिर भी कोई कार्यसिद्धि तो होती नहीं है। बहुत समयसे यह अभ्यास करते हो। लेकिन यह बात सत्य है कि गुरुदेवने ज्ञान द्वारा ज्ञायकको ही दर्शाया है। बहुत सुन्दर।