Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

२४०

चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

समाधानः- ... फिर उसमें लीनता हो, उसमें स्थिर हो जाय तो विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है। लेकिन उसका भेदज्ञान करना चाहिये। अनादि कालसे एकत्वबुद्धिका अभ्यास है। यह शरीर मैं हूँ, यह मेरा है, ऐसी एकत्वबुद्धि है। विभाव मैं हूँ, विभाव मेरा स्वभाव है, ऐसी एकत्वबुद्धि हो रही है। सब विकल्प देखनेमें आते हैं, चैतन्य देखनेमें नहीं आता है। चैतन्यको देखना चाहिये। चैतन्यकी प्रतीति और चैतन्य अपना स्वभाव, उसको ख्यालमें लेना चाहिये।

उसका-चैतन्य तत्त्वका कैसे दर्शन होवे? ऐसी प्रतीति कर, ऐसा भरोसा कर, उसमें स्थिर हो जाना तो चैतन्यतत्त्वकी स्वानुभूति और उसका दर्शन होता है। ऐसा प्रयोग है। उसकी प्रतीति करना, ज्ञान करना, भेदज्ञान करना। भेदज्ञानका बारंबार अभ्यास करना। मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ ऐसा भीतरमें-से तत्त्वमें-से पहचान करके उसका अभ्यास करना चाहिये। तो स्वानुभूति होती है।

मुमुक्षुः- विचार, विकल्पमें तो मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, जैसा आपने फरमाया, ध्यानके कालमें बैठनेके लिये करते हैं। चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ सूक्ष्म अन्दरमें वहीका वही रटन चलते रहता है। परन्तु जो अनुभूति आपने की है, ऐसा (कुछ होता नहीं)।

समाधानः- यथार्थ स्वभावमें-से होना चाहिये। विकल्प तो बीचमें आता है, परन्तु विकल्प तो स्थूल है। भीतरमें जो चैतन्यका स्वभाव है वह मैं हूँ। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करना चाहिये। मैं चैतन्यतत्त्व, उसका अस्तित्व ग्रहण करके उसमें स्थिर होना चाहिये। विकल्पमात्र विकल्प-विकल्प तो बीचमें आता है, परन्तु वास्तवमें उसका अस्तित्व ग्रहण करके उसमें स्थिर होना चाहिये।

वह नहीं होवे तबतक उसका बारंबार-बारंबार अभ्यास करना चाहिये। उसके लिये तत्त्वका विचार, शास्त्र स्वाध्याय आदि सब चैतन्यतत्त्वको पहचाननेके लिये करना चाहिये। भेदज्ञानका अभ्यास। चैतन्यकी स्वानुभूति कैसे हो, उसके लिये करना चाहिये।