આપ કહો છો તો અંદરમાંથી ભરોસો આવવો જોઈએ તે કઈ રીતે આવે? 0 Play आप कहो छो तो अंदरमांथी भरोसो आववो जोईए ते कई रीते आवे? 0 Play
મોક્ષમાર્ગપ્રકાશકમેં આતા હૈ કિ ‘જ્ઞાની સ્વરૂપ ધ્યાનમેં જાતા હૈ’ તો શબ્દાદિકકા વિકાર જાનનેમેં નહીં આતા હૈ... 0:25 Play मोक्षमार्गप्रकाशकमें आता है कि ‘ज्ञानी स्वरूप ध्यानमें जाता है’ तो शब्दादिकका विकार जाननेमें नहीं आता है... 0:25 Play
મુનિરાજકો નિયમ-સંયમ-તપમેં આત્મા હી સમીપ રહતા હૈ યહાઁ સંયમકા અર્થ અંતરસન્મુખતા લેના હૈ યા બાહરકા? 2:00 Play मुनिराजको नियम-संयम-तपमें आत्मा ही समीप रहता है यहाँ संयमका अर्थ अंतरसन्मुखता लेना है या बाहरका? 2:00 Play
આપને કહા હૈ કિ ‘મુજે પરકી ચિંતાકા ક્યા પ્રયોજન હૈ? મેરા આત્મા સદા અકેલા હી હૈ ભૂમિકા અનુસાર શુભભાવ આતે હૈ’ ક્યા યહ સબ મુનિકી બાત હૈ? 4:15 Play आपने कहा है कि ‘मुजे परकी चिंताका क्या प्रयोजन है? मेरा आत्मा सदा अकेला ही है भूमिका अनुसार शुभभाव आते है’ क्या यह सब मुनिकी बात है? 4:15 Play
આપકે જાતિસ્મરણજ્ઞાનમેં ભી હમ પામરોંકા ઉદ્ધાર હૈ? 6:00 Play आपके जातिस्मरणज्ञानमें भी हम पामरोंका उद्धार है? 6:00 Play
અનુભવકાલમેં જો જ્ઞાન સ્વસન્મુખ હુઆ વહ જ્ઞાયક સ્વભાવકો ઉપાદેયપને ગ્રહણ કરતા હૈ યા માત્ર જ્ઞાયકકો જાનતા હૈ? 6:55 Play अनुभवकालमें जो ज्ञान स्वसन्मुख हुआ वह ज्ञायक स्वभावको उपादेयपने ग्रहण करता है या मात्र ज्ञायकको जानता है? 6:55 Play
પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રીકો બાહરસે નહીં અંતરસે દેખના ચાહિયે વહી દેખના હૈ 9:50 Play पूज्य गुरुदेवश्रीको बाहरसे नहीं अंतरसे देखना चाहिये वही देखना है 9:50 Play
‘આ જ હું છું’ એમ વિશ્વાસ આવે તો કાર્ય થાય તે વિષે.... 12:50 Play ‘आ ज हुं छुं’ एम विश्वास आवे तो कार्य थाय ते विषे.... 12:50 Play
જ્ઞાન કહ્યું છે ત્યાં ‘જ્ઞાન એટલે જ્ઞાયક’ અને ‘જ્ઞાયક એટલે અનંતગુણનો અભેદ પિંડ આત્મા’.... 13:45 Play ज्ञान कह्युं छे त्यां ‘ज्ञान एटले ज्ञायक’ अने ‘ज्ञायक एटले अनंतगुणनो अभेद पिंड आत्मा’.... 13:45 Play
સમયસાર ગાથા ૬ માં પહેલા પેરેગ્રાફમાં ‘જ્ઞાયક’ આવે છે અને બીજા પેરેગ્રાફમાં પણ ‘જ્ઞાયક’ આવે છે પહેલામાં જ્ઞાયકને પ્રમત્ત અપ્રમત્તથી રહિત કહ્યો અને બીજામાં પરને જાણતા જ્ઞાયકપણું પ્રસિદ્ધ છે એમ કહ્યું તે કેવી રીતે છે? ‘જ્ઞાયક’ એટલે ત્રિકાળી ‘ધ્રુવ’ ‘દ્રવ્ય’ 16:15 Play समयसार गाथा ६ मां पहेला पेरेग्राफमां ‘ज्ञायक’ आवे छे अने बीजा पेरेग्राफमां पण ‘ज्ञायक’ आवे छे पहेलामां ज्ञायकने प्रमत्त अप्रमत्तथी रहित कह्यो अने बीजामां परने जाणता ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे एम कह्युं ते केवी रीते छे? ‘ज्ञायक’ एटले त्रिकाळी ‘ध्रुव’ ‘द्रव्य’ 16:15 Play
આત્મા અરૂપી હૈ ઉસકો વિષય કૈસે બનાયા જાય? 18:05 Play आत्मा अरूपी है उसको विषय कैसे बनाया जाय? 18:05 Play
मुमुक्षुः- आप कहते हो, अन्दरसे चैतन्यका भरोसा आना चाहिये। वह कैसे आवे?
समाधानः- अंतरमें-से अपनी तैयारी हो, निज स्वभावकी महिमा आये कि यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसी महिमा आये तो विश्वास आवे।
मुमुक्षुः- मोक्षमार्ग प्रकाशकमें टोडरमलजी साहबने पीछे स्वानुभवके विषयमें दियाहै कि जब ज्ञानी स्वरूप ध्यानमें जाता है, तब बाहरमें शब्दादिका विकार आदि जाननेमें नहीं आता है। तो मान लो, बन्दुक की आवाज हो रही है या बाहरमें कोई मनुष्य बोल रहा हो, यदि स्वरूप ध्यान लग गया हो तो उसको उस समयमें आवाजका सम्बन्ध टूट जाता होगा। अगर ख्यालमें आता है तो शुद्धउपयोग नहीं बन पाया।
समाधानः- बाहर कुछ होवे तो, शुद्धउपयोगमें लीन होे तो उसको कुछ मालूमनहीं पडता। बाहर उपयोग नहीं है इसलिये मालूम नहीं पडता। ऐसा लीन हो जाता है, स्वभावमें ऐसा लीन हो जाता है कि बाहरमें कुछ भी होवे उसको ख्याल नहीं रहता। और स्वानुभूतिमें इतना लीन हो जाता है कि बाहर कुछ भी होवे, तो ख्याल नहीं रहता। मालूम नहीं पडता है। स्वभावमें लीन हो जाता है।
छद्मस्थका उपयोग जहाँ जाता है, स्वमें जाता है तो स्वमें लीन हो गया है। स्वभावचैतन्यमूर्ति ज्ञान, आनन्दसे भरा है उसका वेदन होता है। बाहरका ख्याल नहीं रहता है। कोई आवाज होती है, ऐसा होता है तो भी ख्याल नहीं रहता।
मुमुक्षुः- काल थोडा होता है, उससे पलट जाता है तो फिर ख्यालमें आ जाताहोगा?
समाधानः- हाँ, फिर ख्यालमें आता है। अंतर्मुहूर्तका काल है। फिर पलट जायतो ख्यालमें आता है।
मुमुक्षुः- मुनिको संयम, नियम और तप सबमें आत्मा समीप ही रहता है।
समाधानः- "संयम, नियम ने तप विषे आत्मा समीप छे'। आत्मा समीप रहता है।
मुमुक्षुः- यहाँ संयमका अर्थ क्या अंतर्मुख स्वसन्मुखताका वेदन या बाहरका कैसेबैठता है?