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समाधानः- अंतरका संयम है। "संयम नियम तप विषे आत्मा समीप'। आत्माकी जो मुख्यता, आत्माकी ऊर्ध्वता, आत्माकी समीपता, आत्मा द्रव्यदृष्टि तो साथमें रहती है। द्रव्यदृष्टिके साथमें आचरण, उसका संयम, तप सब साथमेंं रहता है। शुद्धरूप संयम, शुद्धात्माका संयम, नियम सब साथमें रहता है। शुभ परिणाम होवे तो भी उसको द्रव्यदृष्टि रहती है। संयम, वास्तविक संयम तो स्वरूपमें लीनता हो, वह संयम है। स्वरूपमें उग्रता हो वह तप है, वास्तविक तप। संयम, नियममें आत्माकी समीपता जिसमें रहती है। आत्माका आचरण जिसमें रहता है, आत्माका तप जिसमें रहता है उसको संयम, नियम, तप सब कहनेमें आता है। आत्मा जिसमें मुख्य रहता है।
मुमुक्षुः- बाहरका जो शुभभाव आदि होता है, उसको इसके अन्दर शामिल नहीं किया।
समाधानः- वह शामिल नहीं है। वह साथमेंं रहता है। पारिणामिकभाव द्रव्यदृष्टिज्ञके साथमें संयम, नियम, तप, स्वरूपमें लीनता सब उसके साथ (होता है)। सम्यग्दर्शनपूर्वक जो संयम, नियम, तप होवे उसको संयम, नियम, तप (कहते हैं)। सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है उसको कहनेमें आता है। आत्मामें-से संयम प्रगट होता है। आत्मामें-से नियम, आत्मामें- से तप ये सब होता है। उसके साथ शुभ परिणाम उसकी भूमिका अनुसार शुभ परिणाम रहता है। पंच महाव्रत, अणुव्रत उसके साथ रहते हैं। तो उपचारसे संयम, नियम कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- उन पर उपचारसे कथन आता है।
समाधानः- उपचारसे कथन है।
मुमुक्षुः- एक जगह और आपने लिखा है उसमें, मुझे परकी चिन्ता नहीं, मुझे परकी चिन्ताका क्या प्रयोजन है? मेरा आत्मा सदैव अकेला ही है। ऐसा ज्ञानी जानते हैं। भूमिका अनुसार शुभभाव आते हैं। यहाँ भूमिका अनुसार शुभभाव आते हैं, तो ज्ञानीको तो शुभ-अशुभ दोनों बनते हैं। यहाँ सिर्फ शब्दमें शुभभाव आते हैं तो यहाँ पर तो मुनिका ही लगना पडे।
समाधानः- भूमिकाके अनुसार शुभभाव आता है। वह ... तो उसकी भूमिकाके अनुसार, इसलिये शुभभावकी बात की है। इसलिये वह मुनिका अर्थ नहीं है। मुझे क्या प्रयोजन है?
मुमुक्षुः- भूमिका अनुसार शुभाशुभ दोनों आते हैं।
समाधानः- हाँ, वह तो दोनों आते हैं। एक शुभभाव आता है ऐसा नहीं है, दोनों आते हैं। परन्तु शुभभावकी बात की है। आते तो दोनों हैं। वह बात आती है न? मुझे क्या प्रयोजन है।