Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

२५६ पुरुषको देखना हो तो आँख-से ही देखेंगे, यहाँ-से नहीं देख सकते न। ऐसा। ... करता है, किसी पुरुषको देखना हो, वस्तुको देखना हो तो आँखका प्रदेश खुला हुआ है तो वहाँ-से वह उस पुरुषको देख सकता है। उसी प्रकार जब आत्माको ग्रहण करने जाते हैं तो इधर तो वह भावमन है नहीं, इधर है नहीं, इधर है नहीं। जहाँ जिसका स्थान है, उस स्थान-से ही ग्रहण करता है या सर्व प्रदेशोंसे वह ग्रहण करता है?

समाधानः- भावमन तो निमित्त है। ज्ञानसे ग्रहण करना है न। ज्ञानसे ग्रहण करना है। तो ज्ञान तो सर्वांग होता है। ... इसलिये वहाँ-से कहनेमें आता है। भावमन निमित्त बनता है। परन्तु ग्रहण तो सर्वांग-से होता है। ज्ञान-से ग्रहण करना है। मन-से ग्रहण करना है (उसमें) मन तो निमित्त होता है। आँख है वह तो... भावमनके निमित्तमें ज्ञान-से ग्रहण करना है। ज्ञान तो सर्वांग-से ग्रहण करता है। निमित्त भावमन बनता है, परन्तु ग्रहण सर्वांग-से होता है।

मुमुक्षुः- पर्याय सर्वांग ग्रहण करके आत्माको पकडती होगी? सर्वांग आत्मा है तो सर्वांग ज्ञानपर्याय भी है। ज्ञानपर्याय वहीं के वहीं आत्माको स्वीकार करती है? पूरी पर्याय समुच्चय आत्माको वहीं के वहीं स्वीकार करती होगी?

समाधानः- पर्याय सर्वांग आत्माको ग्रहण करती है।

मुमुक्षुः- भावमन निमित्तमात्र है।

समाधानः- भावमन निमित्त बनता है। इसलिये कहनेमें आता है कि मन-से होता है। ऐसा कहनेमें आता है। शास्त्रमें भी आता है। थोडा ग्रहण हुआ, इधर-से हुआ, इधर-से नहीं हुआ। इधर-से एकत्वबुद्धि हो रही है और इधर-से ग्रहण हो गया है, ऐसा नहीं। भावमन निमित्त बनता है, परन्तु ग्रहण सर्वांग होता है।

मुमुक्षुः- आत्माके प्रदेशोंमें आनन्दकी .. देता है, उस अपेक्षासे उसको घटा सकते हैं। लेकिन निमित्तकी अपेक्षा तो भावमन ही निमित्त पडता है। उसी दरवाजेके माध्यम- से अन्दर ज्ञानकी पर्याय स्वसन्मुख अन्दरमें जाकर सर्वांगमें आनन्द देती है। उस अपेक्षासे। लेकिन यहाँ-से भी जान लेता होगा, यहाँ-से भी जानता होगा। नहीं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक तो स्वानुभूति करनेकी योग्यता ही नहीं खुली है, माताजी! इसलिये मैंने कहा।

समाधानः- भावमन निमित्त होता है। ... ग्रहण उससे होता है। मनके द्वारा होता है, भावमन-मनके निमित्तके द्वारा अपनेको भीतरमें जाता है। मन निमित्त होता है।

समाधानः- ... स्वरूप पहचानना। आत्मा क्या है? उसका क्या स्वरूप है? शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है। भीतरमें आत्मा ज्ञानस्वभाव ज्ञायक है, उसको पहचानना। विकल्प भी आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भेदज्ञान करना। भेदज्ञानके लिये बारंबार आत्माक रटन करना। शास्त्र स्वाध्याय, विचार, चिंतवन, जन्म-मरण करते-करते शुभभाव