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बहुत किये, पुण्यबन्ध हुआ, देवलोक हुआ लेकिन आत्माका भवका अभाव नहीं हुआ, मुक्ति नहीं हुयी। मुक्ति तो भीतरमें है। भीतरमें-से स्वानुभूति होती है, बाहर-से होता नहीं। पुण्यबन्ध होता है, देवलोक होता है। भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव तो आत्माको पहचानने-से होता है। इसलिये उसको पीछानना चाहिये।
अनुभवके पहले मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वभाव है? उसकी लगन लगनी चाहिये। उसकी महिमा होनी चाहिये। सबकुछ आत्मामें है, सर्वस्व आत्मामें है। बाहरमें कुछ नहीं है। बाहरमें सुख नहीं है, बाहरमें-से कुछ आता नहीं है। सुख, ज्ञान सब आत्माके स्वभावमें है। जो जिसमें होवे उसमें-से निकलता है, उसमें-से प्रगट होता है। जिसका जो स्वभाव हो उसमें दृष्टि दे तो निकलता है।
छोटीपीपर है उसको घिसते-घिसते, गुरुदेव कहते थे, चरपराई प्रगट होती है। वैसे आत्माका स्वभाव पहचाने तो स्वभावमें-से ज्ञान, आनन्द सब आत्मामें-से प्रगट होता है। बाहर-से नहीं आता है। अंतरमें-से आता है। पहले उसका भेदज्ञान करना। उसका बारंबार अभ्यास करना। बादमें विकल्प तोडकरके स्वभावमें स्वानुभूति होती है।