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मुमुक्षुः- दृष्टि करनी, तो दृष्टि करनी कैसे?
समाधानः- दृष्टि बाहर जाती है, उसको पलटकर मैं अनादिअनन्त शाश्वत आत्मा हूँ। अनादिअनन्त एक चैतन्यद्रव्य, उसमें कुछ... अनन्त भव किये, निगोेदमें गया, अनन्त- अनन्त जन्म-मरण किये, तो भी आत्मा तो वैसा ही, जैसा है वैसा ही (रहा है)। उसमें कुछ स्वभावका नाश नहीं हुआ। इसलिये दृष्टि पलटकर आत्मामें दृष्टि देना कि मैं तो चैतन्य आत्मा ही हूँ। मैं शुद्धात्मा हूँ। शुद्ध तरफ दृष्टि देने-से शुद्धात्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। और विभावमें दृष्टि देने-से विभावकी पर्याय होती है।
सुवर्णमें-से सुवर्णके झेवर होते हैं। सुवर्णके झेवर। लोहमें-से लोहेके झेवर होते हैं। विभावमें-से विभाव होता है, स्वभावमें-से स्वभाव होता है। इसलिये अंतर दृष्टि करना, स्वभाव तरफ दृष्टि करना।
मुमुक्षुः- करनी कैसे?
समाधानः- पुरुषार्थ करने-से होती है। दृष्टि तो स्वयं अंतरमें करे तो हो। कोई कर नहीं देता है। अपना पुरुषार्थ करने-से (होती है)। देव, गुरु, शास्त्र मार्ग बताते हैं, उस मार्ग पर चलने-से क्या मार्ग है? गुरुने कैसा मार्ग बताया? जिनेन्द्र देव कैसा कहते हैं? शास्त्रमें कैसा आता है? वह विचार करके, यथार्थ निर्णय करके आत्मामें दृष्टि पुरुषार्थ द्वारा करना। कोई कर नहीं देता है। अनन्त काल हुआ तो कोई करता नहीं है, अपने पुरुषार्थ-से होता है। दृष्टि अपना पुरुषार्थ करके स्वभाव तरफले जाना।
जैसे स्फटिक निर्मल है, वैसे आत्माका स्वभाव निर्मल है। स्फटिकमें ऊपर लाल- पीला रंग देखनेमें आता है। काले-लाल फूलके निमित्तसे काला-लाल दिखाई देता है, परन्तु भीतरमें सफेद है।
वैसे आत्मा मूल स्वभावसे स्फटिक जैसा निर्मल है और विभावकी कालिमा दिखाई देती है वह पुदगलके निमित्तसे और पुरुषार्थकी मन्दतासे विभाव होता है। उसका मूल स्वभाव नहीं है। स्वभाव तो निर्मल है। उस निर्मल तरफ दृष्टि करके उसमें निर्मल पर्याय प्रगट होती है। ऐसा भेदज्ञान करने-से निर्विकल्प स्वानुभूति होती है। वह स्वानुभूति बढते-बढते मुनिदशा होती है तो क्षण-क्षणमेंं स्वानुभूति आत्मामें लीन होता है। मुनिराज