तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वभावमें लीनता करते हैं। ऐसे लीनता करते-करते केवलज्ञान होता है। बाहरसे नहीं होता है। बाहरसे तो क्रिया (करे), शुभभाव-से पुण्य होता है। भीतरमें अंतर दृष्टि और अंतरमें ज्ञान, श्रद्धा और लीनता करने-से स्वानुभूति प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- श्रीमदमें आता है, अपूर्व अवसर ऐसा कब आयगा? ज्ञानी .. मोक्षकी भावना भाते हैं। समयसारकी .. गाथामें आता है, ज्ञानी उपशम, क्षयोपशम, क्षायिकरूप शुद्ध भावना है, उसमें ऐसा भाते हैं कि मैं अखण्ड हूँ। दोनों भावोंमें क्या अंतर है?
समाधानः- मैं अखण्ड ज्ञायक तत्त्व हूँ और विभावभाव मेरा स्वभाव नहीं है, अधूरी पर्याय जितना मैं नहीं, पूरी पर्याय नहीं, मैं तो अखण्ड शाश्वत द्रव्य हूँ। ऐसी भावना, ऐसी दृष्टि यथार्थ करते हैं तो भी पर्यायमें तो अधूराश है। ज्ञान ऐसा रहता है, ज्ञान रखता है कि मैं शाश्वत द्रव्य तो हूँ, पर्यायमें अधूराश है। पर्याय कहीं पूर्ण नहीं हुयी है। वीतराग स्वभाव है, लेकिन वीतरागताकी पर्याय और वीतरागताका वेदन नहीं हुआ है। केवलज्ञान नहीं हुआ है, इसलिये उसकी भावना होती है।
अपूर्व अवसर ऐसा कब आयगा? कब ऐसा अपूर्व अवसर आये कि मैं आत्माका ध्यान करुँ, निर्विकल्प स्वानुभूति (करके) बारंबार आत्मामें लीनता करुँ, मुनिदशा प्रगट होवे, एकान्तवासमें आत्माका ध्यान करके केवलज्ञान प्रगट करुँ, ऐसे पर्यायकी शुद्ध करनेके लिये भावना आती है। और द्रव्य अपेक्षासे मैं शुद्ध हूँ।
समयसारमें ऐसा आता है कि द्रव्य अपेक्षासे मैं शुद्ध हूँ परन्तु पर्यायकी शुद्धिके लिये मैं कब केवलज्ञान प्राप्त करुँ? कब मुनिदशा प्राप्त करुँ? ऐसी भावना आती है। द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षासे। पर्याय तो शुद्ध पूर्ण नहीं हुयी है, द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण है।
मुमुक्षुः- इसे खण्डकी भावना कह सकते हैं?
समाधानः- भावना तो आवे, पर्यायकी शुद्धिकी भावना आये। आचार्यदेव अमृतचन्द्राचार्यने कहा है न, मम परमविशुद्धि चिन्मात्र... मैं तो चैतन्य शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ, परन्तु मेरी परम विशुद्धिके कारण मैं यह शास्त्र रचता हूँ। शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति द्रव्य अपेक्षासे हूँ और पर्यायमें मेरी परम विशुद्ध होओ। ऐसी भावना तो साथमें आती है। पर्यायकी शुद्धिकी भावना आती है।
पर्यायकी शुद्धिकी भावना आती है। पर्यायमें मेरी पूर्णता नहीं है। द्रव्य भले शक्तिसे परिपूर्ण है, परन्तु प्रगट वेदन पूर्णताका नहीं है। जैसा द्रव्य है वैसी पर्याय पूर्ण हो जाय, पूर्ण वेदन वीतरागका (हो जाय)। जैसा द्रव्य, वैसी पर्याय भी हो जाय। पर्यायमें विभाव है, पर्यायमें पूर्णता नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण है। पर्यायमें न्यूनता है तो भावना भाते हैं कि कब मुनिदशा प्राप्त हो? ऐसी भावना आती है।
द्रव्य-पर्यायका मेल है। निश्चय-व्यवहारकी सन्धि साधकोंको आती है। गृहस्थाश्रममें