२६० आत्माकी स्वानुभूति थी, निर्विकल्प स्वानुभूती (थी)। न्यारे रहते थे, निर्लेप रहते थे। तो भी भावना आती थी, मैं कब आत्मामें लीन हो जाऊँ? मुनिदशा प्राप्त करुँ, (ऐसी) भावना आती है।
पूर्ण हूँ यानी पूर्ण ही हूँ, अतः कुछ करना नहीं है, ऐसा नहीं आता। जिसे यथार्थ द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, जिसको आत्माका संपूर्ण... द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, (उसे) पर्यायकी भावना साथमें रहती ही है। यदि भावना न रहे तो उसकी द्रव्यदृष्टि भी यथार्थ नहीं है। जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी उसे भावना साथमें होती ही है। मैं कैसे आत्मामें लीनता करुँ, ऐसी भावना होती ही रहती है। द्रव्य पूर्ण और पर्यायकी शुद्धि, ये दोनों साथमें रहते हैं। पर्यायकी शुद्धि, आंशिक शुद्धि तो होती है, परन्तु पूर्ण शुद्धि कैसे हो, ऐसी भावना आती ही रहती है।
मुमुक्षुः- निरंतर चलती है?
समाधानः- चलती है, पुरुषार्थ चलता है। कोई बार भावना उग्र हो जाय। दशा नहीं प्रगट हुयी है, परन्तु भावना आती है। पुरुषार्थकी डोर चालू ही है। शुद्धि कैसे हो? उसे जैसे पुरुषार्थ उत्पन्न हो उस अनुसार शुद्धि होती है। भावना रहती है।
मुमुक्षुः- सहज ..
समाधानः- सहज चलती है। मैं द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण हूँ और पुरुषार्थकी डोर चालू है। भावना कोई बार जोरदार तीव्रपने भावना रहे, वह अलग बात है।
मुमुक्षुः- ... आनन्द न हो तो वह पुरुषार्थ दूसरे कोई भी भवमें कैसे उत्पन्न होता है?
समाधानः- पुरुषार्थ करे.. बारंबार उसके संस्कार डाले, अन्दर गहरे हो तो उसे अवश्य भेदज्ञान होता ही है। परन्तु यथार्थ हो तो। मैं यह चैतन्य हूँ, दूसरा कुछ मुझे नहीं चाहिये। चैतन्य तरफकी ऐसी अपूर्व रुचि और ऐसी महिमा हो, और बारंबार उसकी लगन लगे, तत्त्वका विचार करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, अन्य कुछ मेरा नहीं है। ऐसी भावना रखे, बारंबार उसका अभ्यास रखे, बारंबार उसका चिंवतन करे। ऐसी भावना हो तो उसे.. अंतरमें-से हो, भेदज्ञानका पुरुषार्थ बारंबार करता हो तो उसे अवश्य होता है। उसका कारण यथार्थ हो तो कार्य आता है। उसका फल आये बिना नहीं रहता। पुरुषार्थ बारंबार (करे)। वह थके नहीं। उसकी भावना, जिज्ञासा अंतरमें- से रहा ही करे बारंबार, तो उसका फल अवश्य आता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- मात्र मोक्ष अभिलाष। एक अभिलाष मोक्षकी है, दूसरी कोई अभिलाषा नहीं है। मुझे दूसरा कुछ नहीं चाहिये, एक आत्माके अलावा कोई प्रयोजन नहीं है।