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पहचानकर, ज्ञायकको पहचानकर अनन्त तीर्थंकरों, मुनिवरों सब मोक्ष गये वे, भेदज्ञानसे और स्वभावको-ज्ञायक स्वभावको पहचानकर ही गये हैं। परन्तु जो पुरुषार्थ करता है वह जाता है, जो पुरुषार्थ नहीं करता है वह नहीं जाता। पुरुषार्थ करे वह जाता है। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। भेदविज्ञान-से, जो सिद्धिको प्राप्त हुए वे उसीसे प्राप्त हुए। आत्मस्वभावको पहचानकर। जिसने प्राप्त नहीं किया, उसके अभाव- से नहीं प्राप्त हुए।
मुमुक्षुः-... न्यूनता लगती है कि ऐसा नहीं चलेगा।
समाधानः- उसका कारण स्वयंका ही है। स्वयं रुक गया है। अनादिके अभ्यासमें अटक गया है। जितना अपनी ओरका अभ्यास चाहिये उतना करता नहीं है। गहराईमें जाता नहीं है और बाहर ही बाहर रुक गया है। इसलिये अपनी कचासके कारण ही स्वयं आगे नहीं जा सकता है।
मुमुक्षुः- सत्पुरुषका लाभ लेना हो, उसमें कोई..
समाधानः- ..होता हो तो उसमें अपना कारण है। स्वयंको सत्संगकी भावना हो, सत्पुरुषकी वाणी-श्रवणकी भावना हो, परन्तु बाह्य संयोग ऐसे हो तो शान्ति रखनी। दूसरा क्या कर सकता है? भावना भाये तो योग बराबर बन जाता है।
मुमुक्षुः- क्षति अपनी भावनाकी है, ऐसा ही मानना। समाधानः- अपनी भावनाकी क्षति है। (बाह्य संयोग) अपने हाथकी बात नहीं है, परन्तु भावना रखे। ... अपने हाथकी बात नहीं है, स्वयं अपने भावको बदल सकता है। ऐसा कोई पुण्यका योग हो तो संयोग बदल जाय। अपनी भावना उग्र करे तो।