२६६ है, जो राग-द्वेषकी जाल है, वह मैं नहीं हूँ, परन्तु उसके अन्दर जाननेवाला जो आत्मा है वह मैं हूँ। वह जाननेवाला कैसे पहचानमें आये? तदर्थ उसकी भावना, रटन, महिमा, तदर्थ शास्त्र स्वाध्याय, विचार सब उसके लिये करना है। क्षण-क्षणमें उसका रटन और उसकी भावना रखनी कि यह शरीर, विकल्प आदि सबसे आत्मा अन्दर भिन्न है। चैतन्य तत्त्व, चैतन्यका अस्तित्व कैसे ग्रहण हो? वह करने जैसा है।
अन्दर शाश्वत आत्मा चैतन्यदेव विराजता है। गुरुदेव कहते हैं न? जैसे भगवान हैं, वैसा तू है। ऐसा आत्मा चैतन्यदेव अनन्त महिमावंत आत्मा है। वह आत्मा अन्दर विराजता है, उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। उसीका बारंबार विचार, वांचन, बार-बार वह करने जैसा है। विस्मृत हो जाय तो भी बार-बार वह करने जैसा है। उसीका विचार, वांचन सब वही करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रमें कैसा (आता है), गुरुदेवने कैसा कहा है, भगवानने कैसा (कहा है), मुनिओं कैसी आराधना कर रहे हैं, क्यों, कैसे पुरुषार्थ करना, भेदज्ञान करना? गुरुदेवने सम्यग्दर्शनका मार्ग बताया। वह सब बारंबार स्मरणमें लाकर एक आत्मा कैसे पहचानमें आये, वह करने जैसा है। बारंबार एक ही करने जैसा है। शास्त्रमें आता है न? भेदज्ञान, प्रज्ञाछैनी द्वारा स्वयंको अंतरमें भिन्न करना।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।
समाधानः- स्वरूपमें समा गये। जो चैतन्य स्वरूप है, अनन्त गुणसे भरपूर, उसमें भगवान ऐसे समा गये कि फिर बाहर ही नहीं आते हैं। चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन हो उसे शान्ति हो। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आवे तो बाहर उपयोग जाये। फिर उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। परन्तु उपयोग बाहर जाता है। भगवानका उपयोग फिर बाहर नहींजाता। मुनिदशा आवे, उसमें छठवें-सातवें गुणस्थानमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें जाते हैं। अंतर्मुहूर्त बाहर आते हैं, अंतर्मुहूर्तमें अंतरमें जाते हैं। बाहर आये, अन्दर जाय, इस प्रकार छठवें-सातवें गुणस्थानमें क्षण-क्षणमें स्वानुभूति (होती है)। क्षणमें बाहर आवे,