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क्षणमें अंतरमें जाते हैं। ऐसे छठवें-सातवें गुणस्थानमें (चलता है)। ऐसा करते-करते श्रेणि लगाते हैं। छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनि झुलते हैं। ऐसा करते-करते जब श्रेणि लगाते हैं और केवलज्ञान होता है, फिर आत्मामें ऐसे स्थिर हो जाते हैं कि पुनः बाहर ही नहीं आते। आत्मामेें ऐसे जम जाते हैं।
अनन्त आनन्दका सागर जो पडा है, आनन्द सागर उछल रहा है, उसमें भगवान समा जाते हैं। और अनन्त गुण हैं, उसमें लवलीन हो जाते हैं। आत्माका कोई अपूर्व अदभुत आनन्दका वेदन करते हैं और ज्ञान ऐसा निर्मल प्रगट हो जाता है कि आत्मा तो जाननेवाला ज्ञायक है। उसमें कुछ नहीं जाने, ऐसा बनता नहीं। स्वयं अपनेमें जम जाते हैं, परन्तु उपयोग बाहर (नहीं आता)। जाननेकी इच्छा नहीं है कि ये बाहर क्या है? कुछ जाननेकी इच्छा नहीं है। इच्छा नहीं है तो भी अंतरमें सहज ज्ञात हो जाता है।
मुमुक्षुः- पर्याय तो होती ही है।
समाधानः- हाँ, पर्याय तो होती है।
मुमुक्षुः- ज्ञानकी पर्याय।
समाधानः- ज्ञानकी पर्याय ऐसी निर्मल हो जाती है कि उसमें स्वयं स्वयंको जाने, स्वयं अपना वेदन करे, अनन्त आनन्दका, अनन्त गुणको जाने और बाहरमें लोकालोकको जाने। जो अनन्त द्रव्य, जो अनन्त आत्मा है, अनन्त सिद्ध है, जो- जो भूतकालमें हो गये, वर्तमानमें हो रहे हैं, नर्कमें, स्वर्गमें जहाँ-जहाँ है, सबको जानते हैं। अनन्त परमाणुको जाने। भूतकालमें जीवने अनन्त भव किये उसे जाने। वर्तमान जाने। भविष्यमें अनन्त भव कैसे करेगा, वह जाने। ऐसा भगवान एक समयमें सब जानते हैं। उन्हें विकल्प नहीं करना पडता, उपयोग रखना नहीं पडे। निज स्वरूपमें स्थिर हो गये हों, फिर भी सहज ज्ञात हो। उनका ज्ञान ऐसा निर्मल है।
मुमुक्षुः- ज्ञान..
समाधानः- हाँ, ज्ञान उतना विशाल हो जाता है कि उपयोग रखे नहीं, क्रम पडे नहीं, खेद हो नहीं, विस्मृत नहीं हो, परन्तु सहज जाने।
मुमुक्षुः- तदर्थ बहुत प्रयत्न करना पडे।
समाधानः- हाँ, वह तो प्रयत्न करे तो जाने।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- लेकिन प्रयोजनभूत ज्ञान हो तो वह स्वरूपको पहचाने कि मैं चैतन्य हूँ और यह भिन्न है। विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो चैतन्य ज्ञानस्वरूप हूँ। ऐसे प्रयोजनभूत जानकर अपनेमें लीन हो तो लीन होते-होते जो अन्दर स्वभाव है वह