२६८ प्रगट होते हैं। उसे लोकालोकको जाननेका प्रयत्न नहीं करना पडता, परन्तु अपनेमें स्थिर हो और स्वयंको पहचाने तो सबको (जाने)। एक स्वयंको जाने वह सबको जान सकता है। स्वयंको जाने। लेकिन जो दूसरोंको जाननेका प्रयत्न करे वह स्वयंको भी नहीं जानता और परको भी नहीं जानता। लेकिन जो स्वयंको जाने वह सब जान सकता है।
मुमुक्षुः- कितना आनन्द आता है। स्वरूप थोडी देर सुनकर कितना आनन्द आता है। सुनना अच्छा लगता है।
समाधानः- उस स्वरूपकी क्या बात! अदभुत स्वरूप है!
मुमुक्षुः- अभी बहुत आवरण हैं।
समाधानः- अभी आवरण है। परन्तु प्रयोजनभूत गुरुदेवने मार्ग बताय है। उस मार्गको पहचाने कि मैं चैतन्य भिन्न हूँ। उस चैतन्यमें स्थिर हो जाय, विकल्प टूट जाय और यदि स्वानुभूतिके मार्ग पर जाय और स्वानुभूति हो तो वह अपनेमें लीनता करते- करते, श्रद्धा, ज्ञान और लीनता करते-करते वह केवलज्ञानको प्राप्त करता है।
मुमुक्षुः- प्रथम तो शरीर-से भिन्न मानना।
समाधानः- शरीर-से भिन्न, शरीर और विकल्प-से भिन्न। शरीर स्थूल है। यह शरीर तो जड है, कुछ जानता नहीं। उससे तो भिन्न है। प्रथम ऐसा (करे)।
मुमुक्षुः- उससे तो भिन्न मानता ही नहीं।
समाधानः- वह शरीरसे भी (भिन्नता) नहीं मानता है तो विकल्प-से कहाँ माने? शरीर और मैं एक हूँ, ऐसा मानता है। शरीरसे भिन्न मैं जाननेवाला हूँ। प्रथम शरीरसे भिन्न। अन्दर गहराईमें जाय तो विकल्पसे भिन्न। जो-जो अनेक जातके विकल्प आये, आकुलता हो, वह सब विकल्प आये...
मुमुक्षुः- विकल्पसे तो अभी भी जान सकते हैं, परन्तु शरीर-से तो भिन्नता नहीं मान सकता हैं, वह कैसे?
समाधानः- विकल्प-से भिन्न मानना मुश्किल है।
मुमुक्षुः- शरीर-से तो भिन्न कहाँ मानता ही है। थोडा भी शरीरको कुछ हो तो..
समाधानः- रागके कारण। यह शरीर भिन्न है। क्षण-क्षणमें अपना भेदज्ञान तैयार रखना चाहिये कि ये जो रोग होता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। एक बार धारणा कर ली, विचार कर लिया और फिर छोड दे, ऐसा नहीं। जब- जब स्वयंको प्रसंग पडे तब ज्ञान हाजिर हो कि यह शरीरमें जो होता है वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं भिन्न हूँ। मैं चैतन्य हूँ। ऐसी क्षण-क्षणमें अपनी तैयारी रखे तो क्षण-क्षणमें उससे भेदज्ञान निरंतर भाने जैसा है।
मुमुक्षुः- विकल्प-से तो ऐसा माने, इतना सुने तो ऐसा लगे कि शरीर-से मैं