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ओहो..! भगवानकी ऐसी वाणी! आत्माका स्वरूप समझमें आये, भेदज्ञान हो, मुनिदशा हो और केवलज्ञान हो जाय। सबको तीर्थंकर गोत्र बन्धे ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- मुनिदशाके बाद ही..
समाधानः- मुनिदशा अवश्य आती है, मुनि हो, केवलज्ञान हो। केवलज्ञान हो तो किसीको वाणी छूटे, किसीको नहीं छूटती। फिर मोक्ष हो जाता है। गजसुकुमाल मुनि गये, स्मशानमें गये और सर पर अग्नि रखी। उसने अग्नि रखी, उपसर्ग आया तो अंतरमें ऊतर गये। केवलज्ञान हो गया और मोक्ष हो गया।
मुमुक्षुः- अपने यहाँ चैबीसीमें अंतिम महावीर भगवान, अब आगामी चौबीसीके श्रेणिक राजा प्रथम तीर्थंकर होंगे। उन्हें दिव्यध्वनि छूटेगी?
समाधानः- हाँ, उन्हें दिव्यध्वनि छूटेगी। महावीर भगवानकी जैसी दिव्यध्वनि छूटती थी, वैसी श्रेणिक राजाकी दिव्यध्वनि छूटेगी। उन्होंने तीर्थंकर गोत्र बान्धा है। श्रेणिक राजाने तीर्थंकर गोत्र बान्धा है। ऐसे चौबीस भगवान होते हैं। वर्तमान चौबीस, भविष्यमें चौबीस, भूतकालमें चोबीस (हुए)। चौबीस भगवान, यह भरतक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र सबमें चौबीस-चौबीस भवगान होते हैं। और महाविदेहमें बीस विहरमान भगवान हैं। वहाँ महाविदेहमें हमेशा भगवान विराजते हैं। अच्छा काल हो उस समय विदेहक्षेत्रमें हर जगह भगवान होते हैं।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन सबको क्यों नहीं हो जाता?
समाधानः- पुरुषार्थ करे तो हो। करना स्वयंको है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, गुरुदेवने कहा न, जो पुरुषार्थ करे उसे होता है। कोई किसीको कर नहीं देता। अनन्त तीर्थंकर हुए, मुनिवर हुए, गुरुदेव जैसे जागे तो गुरुदेव कहते थे कि तू कर तो होगा। कोई किसीको कर नहीं सकता। कोई किसीको जबरन नहीं (करवा देता)। स्वयंको रुचि हो और स्वयंको रुचे नहीं कि ये विभाव अच्छा नहीं है, ये संसार महिमावंत नहीं है, महिमा तो मेरे आत्मामें है। सर्वस्व मेरे आत्मामें है, ये सब तुच्छ और निःसार है। ऐसा स्वयंको अंतरमें लगे और जीव पुरुषार्थ करे, भेदज्ञान करे उसे सम्यग्दर्शन होता है।
मुमुक्षुः- भवका दुःख लगना चाहिये?
समाधानः- हाँ, दुःख लगना चाहिये कि ऐसे जन्म-मरण करते-करते जीव अनन्त बार दुःखी हुआ। अनन्त बार नर्कमें, निगोदमें ऐसे जन्म-मरण होते रहते हैं। मैं आत्मा शाश्वत हूँ, ऐसे स्वयंको पहचाने, वैराग्य करके, तो सम्यग्दर्शन होता है।
मुमुक्षुः- दिन-रात उसीका रटन। समाधानः- वही रटन। उसका गहरा बेसब्री-से रटन होना चाहिये।