२८० व्यवहारमें मुक्तिका मार्ग भी कारण है और मुक्तिकी पर्याय कार्य है। ऐसा भी कारण- कार्य होता है।
मुमुक्षुः- कारण शुद्ध और कार्य अशुद्ध ऐसा नहीं होता।
समाधानः- ऐसा नहीं होता। मूल तो द्रव्य शुद्ध है। इसलिये द्रव्यकी दृष्टि... द्रव्य कारण और पर्याय कार्य है। वह मुक्तिका मार्ग है। बादमें व्यवहारमें मुक्तिका मार्ग कारण है और मुक्तिकी पर्याय (कार्य है)। परन्तु कारण अशुद्ध और कार्य शुद्ध, ऐसा नहीं होता है। कारण अशुद्ध नहीं होता है। पंच महाव्रत कारण होता है और उसका कार्य शुद्ध होता है, ऐसा नहीं होता। पंच महाव्रत शुभ परिणाम कारण होता है और उसका चारित्र शुद्ध होता है, ऐसा नहीं होता है। अणुव्रत, महाव्रत शुभ परिणाम है। वह तो बीचमें आता है। शुभभावका कारण-कार्य जो कहनेमें आता है वह व्यवहार है। शुभ कारण और शुद्ध कार्य, ऐसा नहीं होता। अशुद्धका कारण-कार्य नहीं होता। शुभ कारण और शुभ कार्य, ऐसा होता है। साधक पर्याय शुद्ध है, पूर्णता शुद्ध है। द्रव्य शुद्ध है, उसकी पर्याय शुद्ध, दृष्टिकी पर्याय शुद्ध है। ऐसा शुद्ध होता है।
मुमुक्षुः- द्रव्य-पर्यायमें कारण-कार्य ले (तो) कारण तो सबके पास शुद्ध है। तो कार्यमें अशुद्धता क्यों रहती है? कारण तो सबके पास शुद्ध है अनादिअनन्त, तो कार्यमें अशुद्धता क्यों रहती है?
समाधानः- कारण क्या? मोक्षका कारण क्या? द्रव्यमें अशुद्ध परिणति अनादि- से होती ही है। द्रव्य उसका कारण नहीं होता है। वह मुक्तिका कारण-कार्य कहाँ है? वह तो विभाविक पर्याय है। विभावमें उसका द्रव्यका कारण नहीं होता है। शुद्ध कारण और अशुद्ध विभाव पर्याय, ऐसा नहीं होता। पुरुषार्थकी मन्दतासे विभाव परिणति होती है। वह कारण है। मुक्तिका कारण नहीं है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीके सारे भाव ज्ञानमय होते हैं। उसका स्वरूपका खुलासा।
समाधानः- ज्ञानीकी दिशा और दृष्टि पलट गयी। द्रव्य तरफ दृष्टि हो गयी, उसकी परिणति भी द्रव्य तरफ हो गयी। इसलिये ज्ञानीका सब कार्य ज्ञानमय होता है। विभाव अल्प होता है-अस्थिरता, तो वह गौण है। इसलिये उसका सब कार्य ज्ञानमय ही होता है।
ज्ञाताकी धारा उसको चलती है। स्वानुभूति तो होती है, परन्तु वर्तमान ज्ञाताकी धारा, भेदज्ञानकी धारा रहती है। जो-जो विभाव आवे तो क्षण-क्षणमें ज्ञाताकी धारा, ज्ञायककी धारा न्यारी रहती है। इसलिये ज्ञानीकी सब परिणति ज्ञानमय होती है, ज्ञातामय होती है, साक्षीमय होती है। विभावको गौण कहनेमें आता है। इसलिये ज्ञानीका सब कार्य, उसकी सब परिणति ज्ञानमय होती है। वह अज्ञानमय नहीं होती है, एकत्वबुद्धिरूप नहीं होती है। विभाव होता है तो उससे न्यारा रहता है। इसलिये उसका सब कार्य,