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अंतरकी जो परिणति है वह सब ज्ञानमय होती है।
ज्ञानीकी सब परिणति, सब कार्य, सब पर्याय ज्ञानमय होती है, अज्ञानमय नहीं होती है। ज्ञानमय होती है। उसकी दिशा पलट गयी। ज्ञायक जो आत्मा, उसकी तरफ उसकी दृष्टि चली गयी तो परिणति उस तरफ चली गयी। इसलिये सब परिणति ज्ञानमय होती है। एकत्वबुद्धि है वह अज्ञान है। ज्ञायककी धारा नहीं है, इसलिये उसके सब कार्य अज्ञानमय होते हैं। ज्ञायककी धारा प्रगट हो गयी, इसलिये उसके सब कार्य ज्ञानमय होते हैं। ज्ञायककी धारा चालू ही रहती है। विभाव जो-जो आये तो उसमें ज्ञायककी धारा भिन्न ही रहती है। इसलिये सब परिणति ज्ञानमय होती है।
मुमुक्षुः- .. सविकल्प होती है या निर्विकल्प?
समाधानः- ज्ञायककी धारा-ज्ञानधारा सविकल्प भी होती है और निर्विकल्पमें तो विकल्प नहीं है। निर्विकल्पमें भी ज्ञानधारा है और सविकल्पमें भी ज्ञानधारा है। दोनोंमें ज्ञानधारा होती है।
मुमुक्षुः- एक-सी होती है दोनोंमें ज्ञानधारा? सविकल्पमें भी और निर्विकल्पमें भी?
समाधानः- ज्ञायककी धारा उग्र है। निर्विकल्पमें है तो विकल्प नहीं है। ज्ञायक ज्ञायकरूप लीन हो गया है। बाहर आवे तो विकल्पके साथमें है तो भिन्न भेदज्ञानकी धारा रहती है। और स्वानुभूतिमें निर्विकल्प धारा है। सविकल्पमें विकल्पवाली धारा है परन्तु ज्ञानधारा है। उदयधारा और ज्ञानधारा भिन्न-भिन्न है।
समाधानः- .. ज्यादा शुभभाव कर लूँ या ज्यादा क्रिया कर लूँ, बहुत उपवास कर लूँ, ऐसा कर लूँ, उससे जन्म-मरण नहीं टूटता। जन्म-मरण भेदज्ञान करने-से, आत्माको पहचानने-से टूटता है। बीचमें शुभराग आता है तो पुण्यबन्ध होता है। जबतक शुद्धात्मामें लीन नहीं होता है तो शुभराग आता है, लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं है। वह हेयबुद्धिसे बीचमें आता है। वह अपना स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करे। और जब लीनता करे तो भी शुभभाव आता है, लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं है। उससे जन्म-मरण नहीं टूटता है।
मुनिको भी पंच महाव्रत, श्रावकको अणुव्रत आता है, वह शुभभाव है। वे उसका भेदज्ञान करते हैं। सम्यग्दर्शनपूर्वक जो मुनिदशा होती है, वह मुनिदशा है। सम्यग्दर्शनपूर्वक। स्वानुभूति मुनिओंको क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होते हैं। ऐसे स्वरूपकी प्राप्ति होती है। चारित्र दशा वीतराग दशा केवलज्ञान होता है तब रागका क्षय, वीतराग दशा होती है।
पहले उसका भेदज्ञान होता है कि राग मैं नहीं हूँ, ऐसा श्रद्धान करना, उसका भेदज्ञान करना। सम्यग्दृष्टिको भी गृहस्थाश्रममें स्वानुभूति होती है। स्वानुभूति है वही मुक्तिका मार्ग है, जन्म-मरण उससे (टलते हैं)। बाहर रुकने-से नहीं होता है। अनन्त कालमें