२९२ है। ज्ञायक शान्तिरूप है, आनन्दरूप है। रागमिश्रित विकल्प उपाधिरूप है। विकल्पसे भेदविज्ञान करना। मैं ज्ञायक हूँ, मैं आनन्द हूँ, ये सब विकल्प उपाधिरूप है। परन्तु वह बीचमें आता है तो उससे भेदविज्ञान करना कि ये मैं नहीं हूँ।
ज्ञायक उपाधि नहीं है। सहज परिणति ज्ञानकी-ज्ञायककी उपाधि नहीं है। विकल्प उपाधि है। मैं हूँ, तो विभक्त (होता है)। मैं यह हूँ, यह नहीं हूँ। तो विभक्त यथार्थ होता है। (अन्यथा) विभक्त नहीं होता है। मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक स्वभाव अनादिअनन्त है। आनन्दसे (भरा है)। ज्ञायक चैतन्य जो ज्ञायक है वह मैं हूँ। बीचमें विकल्प आता है-मैं ज्ञायक हूँ, वह विकल्प भी मेरा स्वरूप नहीं है। बीचमें आता है, वह उपाधि है, आकुलता है, विपरीत है, तो भी बीचमें आता है। परन्तु मैं तो निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसी श्रद्धा पहले तो बुद्धि-से होती है, परन्तु ऐसी परिणति हो जाये कि मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसी सहज परिणति होवे तब ही यथार्थ भेदज्ञान होता है। सहज परिणति होवे। क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी सहज परिणति होवे तो यथार्थ भेदज्ञान होता है। और उपयोग पलट जाय तो निर्विकल्प स्वानुभूति भी इसमें होती है। उपयोग बाहर होता है, भीतरमें... स्वानुभूतिकी दशा तो अंतर्मुहूर्तकी होती है। बाहर आवे तब तो भेदज्ञानकी धारा चलती है। ज्ञायक हूँ। परन्तु ज्ञायककी परिणतिमें उसमें शान्ति, निर्विकल्पता आनन्द वह दूसरी बात है। वह तो अपूर्व है। परन्तु आंशिक शान्ति, ज्ञायककी परिणति ऐसी सविकल्प दशामें भेदविज्ञानकी धारामें भी उसको रहती है। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करे उसको यथार्थ भेदविज्ञान होता है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान।
समाधानः- हाँ, अतीन्द्रिय ज्ञान होता है। वह ज्ञान, मैं ज्ञायक हूँ, उसमें अतीन्द्रिय आ जाता है। पर तरफ इससे जानता हूँ या बाहरसे जानता हूँ, ज्ञेयसे जानता हूँ, ऐसा नहीं। मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। अतीन्द्रियका वेदन तब होता है, (जब) विकल्प छूटे तब स्वानुभूति अतीन्द्रिय आनन्द आता है। उसके पहले उसकी श्रद्धाकी परिणति होती है। भेदज्ञानकी परिणति होती है। ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति होनी चाहिये। ज्ञेयसे भेदज्ञान करना। वह जाननेका छूटता नहीं है, परन्तु उससे भेदविज्ञान होता है, मैं ज्ञायक हूँ।
मुमुक्षुः- और सहज परिणति होनेके बाद भी भेदज्ञान होता है?
समाधानः- सहज परिणति तो यथार्थ होती है। उसके पहले भेदज्ञानका अभ्यास होता है। वास्तविक भेदज्ञान तो नहीं है। सहज दशा जब होवे तब यथार्थ भेदज्ञान तो तभी होता है। जिसको निर्विकल्प स्वानुभूति होती है, बादमें उसकी भेदविज्ञानकी धारा चलती है, उसको सहज परिणति भेदज्ञानकी होती है। उसके पहले भेदज्ञानका