२३३
अभ्यास होता है, यथार्थ भेदज्ञान नहीं होता है।
विकल्प और बुद्धि द्वारा, भावना द्वारा ऐसा अभ्यास होता है। यथार्थ नहीं होता। परन्तु पहले अभ्यास होता है। बुद्धिपूर्वक विचार करता है, मैं भिन्न हूँ। ये मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसी भावना करता है, ऐसी महिमा करता है, बीचमें ऐसा अभ्यास करता है।
मुमुक्षुः- ... यथार्थ भेदज्ञान हो जाता है।
समाधानः- अस्तित्वका ग्रहण होवे तो यथार्थ होता है। आत्मामें अपूर्वता लगे कि मैंने अस्तित्व ग्रहण किया।
मुमुक्षुः- अस्तित्वरूप परिणमित हो, उसके बाद वास्तविक भेदविज्ञान होता है?
समाधानः- अस्तित्वरूप परिणति हो जाय, मैं यह चैतन्य हूँ, तो यथार्थ होता है। नहीं तो भेदज्ञानका अभ्यास होता है। विभावकी परिणति हो रही है, उससे भिन्न पडना वह कार्य करना है। वही मुक्तिका मार्ग है। चैतन्य अनादिअनन्त शाश्वत है, उसको ग्रहण करता है तो प्रज्ञा-से जैसे भिन्न किया, वैसे प्रज्ञा-से ग्रहण करना। प्रज्ञा-ज्ञान द्वारा प्रज्ञाछैनी द्वारा उसको ग्रहण करना, तो भेद हो जाता है। स्वानुभूति उसमें होती है।
मुमुक्षुः- शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्य परिणति, वह वास्तवमें ध्यान है। वह ध्यान प्रगट होनेकी विधि अब कहनेमें आती है। जब वास्तवमें योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका विपाक पुदगल कर्म होने-से, उस विपाकको यानी स्वयं-से भिन्न ऐसे अचेतन कमामें समेटकर, विपाकको कर्ममें समेटकर, तदनुसार परिणति-से उपयोग- से व्यावृत्त करके यानी उस विपाकके अनुरूप परिणमनेमें उपयोगको निवृत्त करके, मोही- रागी और द्वेषी नहीं होकरके, ऐसे उस उपयोगको अत्यंत शुद्ध आत्मामें निष्कंपपने लीन करता है तब, उस योगीको कि जो अपने निष्क्रिय चैतन्य स्वरूपमें विश्रांत है। वचन, मन और कायाको भाता नहीं और स्व कमामें व्यापार नहीं करता है, उसे सकल शुभाशुभ कर्मरूप इँधनको जलानेमें समर्थ होने-से, अग्नि समान ऐसा, परम पुरुषार्थ सिद्धिके उपायभूत ध्यान प्रगट होता है।
समाधानः- चैतन्य स्वरूपमें एकदम स्थिर हो गया, विकल्प छूट जाय। शुभाशुभ परिणति जो होती है, उससे व्यावृत्त करके। चैतन्यकी परिणति.. कोई अपेक्षासे उसे जड (कहते हैं), जड अर्थात होती है चैतन्यमें, कर्मका निमित्त (है), इसलिये वह मेरा स्वरूप नहीं है। उससे भिन्न होकर एकदम स्वरूपमें लीन-अपनेमें विश्रांत हो जाता है। विकल्प छूटकर अंतरमें एकदम निष्कंप हो जाता है। ऐसी निर्विकल्प दशा हो, वह ध्यानका स्वरूप है। ऐसी उग्रता, जिसमें विकल्प भी उत्पन्न नहीं होता, व्यावृत्त हो गया, विकल्प-से भी न्यारा हो गया, भिन्न हो गया, ऐसी निष्कंप ध्यान दशा योगिओंको प्रगट होती है। जो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलनेवाले मुनिवर (हैं, वे) अंतर्मुहूर्तमें निर्विकल्प