Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

२९४ दशामें (आते हैं) और बाहर आये तब छठवें गुणस्थानमें विकल्प आता है। सातवें गुणस्थानमें निर्विकल्प दशामें ऐसे जम जाते हैं और उसीमें लीन हो जाय तो उसमें केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। उसीमें श्रेणि चढते हैं।

ऐसा व्यावृत्त, उससे न्यारा, श्रद्धासे तो न्यारा हो गया था, प्रतीतमें ज्ञाताकी धारारूप सम्यग्दर्शनमें न्यारा तो हो गया था, परन्तु ये तो विशेष व्यावृत्त-न्यारा हो गया। चारित्रदशा- से लीन हो गया, विशेष लीन हो गया। ऐसा लीन हो गया कि ध्यानकी उग्रता हो गयी। पहले तो सम्यग्दर्शनमें स्वरूपाचरण चारित्र था। ये तो विशेष लीन हो गया। ऐसा निष्कंप हो गया। अपने स्वरूपमें विश्रांति लेता है। सब कमा-से भिन्न पड गया। जो विभाव परिणति थी, उससे दूर हो गया और स्वरूपमें विभाव परिणति भी उठे नहीं, ऐसा स्वरूपमें लीन हो गया। ऐसा ध्यान करते-करते ऐसे योगीको केवलज्ञान प्रगट होता है। वह ध्यानका स्वरूप है। जिस ध्यानमें विकल्प भी उत्पन्न नहीं होते। वह ध्यान है।

वह सम्यग्दर्शनकी बात (थी), ये तो मुनिदशाकी बात (है)। उग्र ध्यान हो गया। मुनिदशामें छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनिओंको ध्यान (होता है उसमें) उपयोग ज्यादा बाहर नहीं सकता। अंतर्मुहूर्त होते ही स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। उपयोग बाहर जाय तो भी भेदज्ञानकी धारा तो वर्तती है, परन्तु बाहर जाय तो टिक नहीं सकते। अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन (होकर) निर्विकल्प दशा प्राप्त होती है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें। ऐसा करते- करते विशेष ध्यान हो तो ऐसे जम जाते हैं कि फिर बाहर ही नहीं आते। ऐसा ध्यान लगाते हैं, श्रेणि चढकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। ऐसा ध्यान प्रगट हुआ है। ऐसे उग्र ध्यानकी बात करते हैं।

मुमुक्षुः- ऐसा ध्यान साधकको नहीं होता है? श्रावक।

समाधानः- ऐसा ध्यान मुनिको होता है।

मुमुक्षुः- मुनिको होता है?

समाधानः- सम्यग्दर्शनका ध्यान वह अलग बात है। ये योगीका ध्यान लिया है। सम्यग्दर्शनमें ध्यान होता है। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायककी उग्रता करके ज्ञायकमें लीन हो जाय, विकल्प टूट जाय, निर्विकल्प दशा हो जाय, परन्तु बाहर आये तो उसको गृहस्थाश्रमके विकल्प उठते हैं। वह तो गृहस्थाश्रममें रहता है न, उसका विक्प उठता है। उसकी भूमिका गृहस्थाश्रमकी है। तो उसको ऐसा उग्र ध्यान मुनि जैसा नहीं होता है।

उसमें लिया है न? तरंग छोड देता है। सब तरंग छूट जाते हैं। मुनि तो अबुद्धिपूर्वक... निर्विकल्प दशामें सम्यग्दर्शन (होने पर) बुद्धिपूर्वक (विकल्प) छूट गया। अबुद्धिमें तो है। बाहर आवे तो गृहस्थाश्रमका विकल्प उठता है। इसलिये उसका ध्यान उग्र नहीं