मुमुक्षुः- कोई पहलू बाकी न रहे, समझानेके लिये।
समाधानः- सभी पहलूओँ-से समझाया है। शरीर-से भिन्न, विकल्पों-से, शुभाशुभ- से भिन्न, अन्दर क्षणिक पर्यायोंमें भी तू अटकना मत। तू शाश्वत चैतन्य (है) उसे तू ग्रहण कर। बीचमें शुभभाव आये लेकिन वह तेरा स्वरूप नहीं है। तू कोई गुणोंके भेद या कोई भेदमें अटकना मत। भले तेरेमें अनन्त गुण हैं, परन्तु तू कोई भेदमें अटकना मत। अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि कर। सब ज्ञानमें ग्रहण कर (-जान), परन्तु तू एक अखण्ड चैतन्यको ग्रहण कर। चारों ओर-से समझाया है।
... जाननेवाला है। सब विकल्पके बीच जो जाननेवाला है वह मैं हूँ। उसका भेदज्ञानका प्रयत्न करना। ये सब विकल्प, कोई भी विकल्प हो, विकल्पके बीच मैं एक जाननेवाला ज्ञायक एक चैतन्य तत्त्व हूँ, शाश्वत एक आत्मा हूँ। उसे पहचाननेका प्रयत्न कर। उपयोग बाहर जाय तो देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, जिनेन्द्र देव, गुरुने क्या कहा है, कोई अपूर्व मार्ग बताया, शास्त्रमें क्या कहना है? और अंतरमें जाय तो एक आत्मा। आत्माके ध्येयपूर्वक सब होना चाहिये।
चाहे जैसे ऊँचे शुभभाव हो, परन्तु शुभभाव भी आत्माका स्वरूप नहीं है। बीचमें शुभभाव आते हैं, परन्तु वह स्वरूप-आत्मा उससे भिन्न है। सिद्ध भगवान जैसे निर्विकल्प तत्त्व है, वैसा ही आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, उसे पहचाननेका प्रयत्त कर। उसकी लगन, महिमा, उसका विचार, उसका वांचन सब करना। उसका भेदज्ञान कैसे हो? चैतन्य अखण्ड तत्त्व है, उसे ग्रहण करना, उसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करना और परके साथ जो एकत्वबुद्धि हो रही है, विभावके साथ, उस विभावसे कैसे भिन्न पडे और आत्मा ग्रहण कैसे हो, यह करने जैसा है।
आत्माका अस्तित्व कैसे ग्रहण हो? और ये विभावसे विभक्त-भिन्न कैसे पडे? यह करनेके लिये विचार, वांचन आदि सब करना है। अनन्त जन्म-मरण किये लेकिन बाहर कहीं-कहीं क्रियाओंमें इससे धर्म होगा, इससे धर्म होगा (ऐसा माना)। धर्म अंतरमें रहा है। अंतर आत्माको पहचाने उसीमेंं धर्म है। धर्म आत्माका स्वभाव है, वह स्वभाव कैसे पहचानमें आये?