३१० अंशका सत है वह स्वयंसिद्ध है। लेकिन द्रव्यका स्वरूप द्रव्यके आश्रय-से है।
मुमुक्षुः- उसे रखकर बात है।
समाधानः- वह बात रखकर उसका स्वयंसिद्ध सत इस प्रकार समझना।
मुमुक्षुः- तीनों मिलकर एक सत है। ... परद्रव्य-से भेदज्ञान हो। और द्रव्य सत, गुण सत और पर्याय सत ऐसा ज्ञान करवाकर पर्यायका लक्ष्य छुडाना है और गुणकी दृष्टि करवानी है, ऐसा कोई प्रयोजन है?
समाधानः- तू परद्रव्य-से भिन्न हो जा। तेरेमें पर्याय हैं, तू कूटस्थ नहीं है, परन्तु तेरेमें भी पर्याय हैं। तेरी परिणतिको बदल, ऐसा कहना है। तेरेमें पर्याय हैं, तेरेमें गुण हैं। अपने स्व गुण और स्व पर्यायोंका उसका ज्ञान होता है। तेरी परिणति पलटन स्वभावी है। तू ऐसा नहीं है कि कूटस्थ है। अकेला कूटस्थ है और उसमें कुछ है ही नहीं, सर्व अपेक्षा-से कूटस्थ है ऐसा नहीं है। तेरेमें परिणति-पर्याय भी है और वह पर्याय सतरूप है। तेरेमें अनन्त गुण हैं। ऐसे द्रव्य सत, गुण सत, पर्याय सत सबका ज्ञान कर।
.. दृष्टि तो अभेद करनी है, परन्तु यह सब ज्ञान करना है। तेरा द्रव्य अखण्ड कैसा है, उसका ज्ञान कर। पर्यायदृष्टि छुडाकर... दृष्टि अपनी ओर जाती है तो पर्याय अपनी ओर मुडती है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- द्रव्यका लक्ष्य होता है इसलिये पर्याय स्वयं पलटती है। कोई द्रव्य कूटस्थ मानते हो, द्रव्यमें गुण नहीं है, ऐसा मानते हो। उसमें अखण्ड अनेकान्त स्वरूप आ जाता है। तेरेमें गुण अनन्त हैं, तेरेमें पर्याय हैं। सबका ज्ञान कर। पर्याय न हो तो साधक दशा भी न हो। तो साधक दशा पर्याय है। गुणोंका वेदन होता है। ज्ञानका ज्ञानरूप, चारित्रका चारित्ररूप, आनन्दका आनन्दरूप। वह सब वेदन होता है। इसलिये तेरेमें गुण हैं, तेरेमें पर्याय हैं। और वह सब स्वद्रव्य है। वह सब ज्ञान करनेके लिये है। और उसमें परिणति, उस रूप अपने पुरुषार्थकी परिणति भी उस अनुसार होती है।
दृष्टि और ज्ञान यथार्थ न हो तो उसका पुरुषार्थ भी यथार्थ नहीं होता। द्रव्य पर अखण्ड दृष्टि कर, परन्तु ये गुण और पर्यायके भेदमें रुकना नहीं है, परन्तु उसका ज्ञान कर। तुझे चारित्रकी पर्याय प्रगट हो, वह भी पर्याय है, तुझे ज्ञान प्रगट हो, वह भी एक पर्याय है। लेकिन वह सब तेरेमें गुण हैं।
मुमुक्षुः- एक अखण्ड वस्तुमें ऐसे अनन्त गुण..
समाधानः- पर्यायरूप सत भी तेरे द्रव्यमें सब भरा है। उसका ज्ञान कर। यथार्थ श्रद्धा हो, स्वानुभूति हो। तो भी चारित्रदशा अभी बाकी रहती है। इसलिये ऐसे गुणके