Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

३२० अपना ज्ञायकका अस्तित्व छोडा नहीं है और ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता है। लेकिन उसे उसका ज्ञान और श्रद्धान नहीं है। उसकी दृष्टि बाहर है।

वह ऐसा है कि, जैसे जड अपने स्वरूपको छोडता नहीं है, वैसे चैतन्य अपने स्वरूपको छोडता नहीं है। स्वयं अनुभूतिस्वरूप ही है। ज्ञान असाधारण लक्षण है कि ज्ञान ज्ञानस्वरूप स्वयं परिणमता है। लेकिन उसे उसकी अनुभूति नहीं है। अनुभूति अर्थात उसे आनन्दकी अनुभूति नहीं है। परन्तु स्वयं अपने अनुभूतिस्वरूप अर्थात चैतन्य चैतन्यरूप परिणमता है। अर्थात ज्ञान ज्ञानरूप-से अनुभवमें आ रहा है। लेकिन उसको स्वयंको वह मालूम नहीं है कि मैं चैतन्य स्वयं अस्तित्व स्वरूप हूँ। उसका अस्तित्व उसने ग्रहण नहीं किया है, लेकिन अस्तित्वका नाश नहीं हुआ है। वह अनुभूतिस्वरूप ही है। आत्मा स्वयं अनुभूतिस्वरूप है। लेकिन उस अनुभूतिका स्वयंने अनुभव नहीं किया है। ऐसा उसका अर्थ है।

मुमुक्षुः- दृष्टिकी भूल है, यह बताना है।

समाधानः- दृष्टिकी भूल है, यह बताना है। उसकी दृष्टिकी भूल है। उसकी दृष्टि बाहर है। जैसे दूसरोंकी गिनती करता है कि यह आदमी है, यह आदमी है, लेकिन स्वयंको गिनना भूल जाता है। ऐसे स्वयं सब बाहर देख रहा है। बाहरका है, लेकिन मैं स्वयं चैतन्य हूँ, उसके अस्तित्वका नाश नहीं हुआ है, लेकिन वह स्वयंको भूल गया है। अपना अस्तित्व अनुभवमें आ रहा है। परन्तु उस अस्तित्वकी आनन्दकी अनुभूति नहीं है।

अनुभूतिस्वरूप स्वयं होने पर भी उसे आनन्दकी अनुभूति नहीं है। ज्ञान असाधारण लक्षण है कि जिस लक्षण-से स्वयं अपनेको पहचान सके ऐसा है। वह ज्ञान-ज्ञायकताका नाश नहीं हुआ है, ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। लेकिन स्वयं उस ज्ञायकतारूप नहीं हुआ है। इसलिये उसकी ओर दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसका आचरण करे तो उसे आनन्दकी अनुभूति प्रगट होती है। उसकी श्रद्धा नहीं करता है, स्वयं स्वयंका यथार्थ ज्ञान नहीं करता है।

यदि प्रतीति निःशंक हो तो उसका आचरणका बल भी बढ जाता है। तो उसका आचरण भी जोरदार अपनी ओर होता है। लेकिन निःशंकता नहीं है। दृष्टि बाहर है, इसलिये स्वयं स्वयंको भूल गया है। देखे तो ज्ञान असाधारण लक्षण है। उसका नाश नहीं हुआ है। तो भी स्वयं स्वयंको देखता नहीं। वह अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्माका स्वयं आनन्दरूप अनुभव नहीं करता है। अतः अनुभवमें तो आ रहा है, परन्तु वह आनन्दरूप अनुभवमें नहीं आ रहा है। ज्ञान ज्ञानरूप, उसका अस्तित्व अस्तित्वरूप परिणमता है। ऐसा उसका अर्थ है।