२३७
मुमुक्षुः- मतलब वहाँ अस्तित्व .. कहना है और अपना ध्यान नहीं रहता है और अपना आनन्दका अनुभव नहीं कर रहा है, ऐसा ही न?
समाधानः- आनन्दकी अनुभूति नहीं है। वहाँ अनुभवका अर्थ ऐसा नहीं है कि उसे स्वानुभव है। ऐसा अर्थ नहीं है। स्वयं अपने स्वभावरूप परिणमता है। बस! ऐसा उसका अर्थ है। आनन्दकी अनुभूतिका अर्थ नहीं है। ज्ञानका नाश नहीं हुआ है, परन्तु ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। उसका अस्तित्व अस्तित्वरूप है। परन्तु उस अस्तित्वकी उसे प्रतीति नहीं है। अस्तित्व ज्ञान ज्ञानरूप है, परन्तु उस अस्तित्वकी उसे स्वयंको प्रतीति नहीं है। अपनी तरफ यदि लक्ष्य करे तो स्वयंको अस्तित्व ग्रहण हो ऐसा है। ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है, लेकिन वह देखता नहीं है। उसका स्वभाव ही अनुभूतिस्वरूप है। वह स्वयं वेदनस्वरूप आत्मा है। परन्तु उसे वह प्रगटरूपसे वेदता नहीं है।
मुमुक्षुः- वहाँ तो प्रथम आत्माको जानना ऐसा कहा है, श्रद्धान बादमें, ऐसा लिया है।
समाधानः- जब वह स्वयं अपनी तरफ जाय (उसमें) पहले स्वयंको ज्ञान-से पहचाने। वस्तु स्वरूप-से उसे प्रतीत यथार्थ नहीं है। पहले ज्ञान यथार्थ करना, फिर प्रतीत करनी, फिर आचरण करना, क्रम ऐसा लिया है। अनादि-से स्वयंको सच्ची समझ ही नहीं है। इसलिये व्यवहारमें ऐसा कहे कि स्वयंने अपना ज्ञान यथार्थ नहीं किया है, इसलिये तू यथार्थ कर तो श्रद्धा यथार्थ होगी, ऐसा कहनेमें आता है।
बाकी वास्तवमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणी मोक्षमार्ग (है)। यथार्थ प्रतीत हो तो ही मोक्षमार्गका प्रारंभ होता है। लेकिन उसे पहले ज्ञान करना चाहिये। उसके मार्गमें ऐसा आता है कि तू यथार्थ ज्ञान कर, फिर श्रद्धा होती है। इसलिये प्रथम ज्ञान करनेका आता है। अनादिका अनजाना..
मुमुक्षुः- उसका अर्थ यह है कि प्रथम श्रद्धा करनी तो ही ज्ञान हुआ ऐसा कहनेमें आये।
समाधानः- हाँ, श्रद्धा यथार्थ हो तो ही यथार्थ ज्ञान होता है। परन्तु प्रथम समझ जूठी है, इसलिये प्रथम समझन यथार्थ कर। व्यवहार-से ऐसा आता है। कथन ऐसा है कि व्यवहारमें पहले ज्ञान यथार्थ कर। सिर्फ कथन है ऐसा नहीं, पहले उसे जाननेका बीचमें आता है। प्रतीति बादमें यथार्थ होती है। ज्ञान यथार्थ न हो तो प्रतीति यथार्थ नहीं होती है। परन्तु प्रतीति यथार्थ हो तो ही ज्ञानको यथार्थ कहनेमें आता है। निश्चय दृष्टि-से ऐसा है।
मुमुक्षुः- दो बात आती है।
समाधानः- दो बात है, दो बात ऐसी है।