Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1555 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-५)

३२२

मुमुक्षुः- दो बातमें हमें गडबड बहुत होती है। एक कह तो हमें ठीक रहता है। श्रद्धा करनी है तो श्रद्धा पर जोर दें।

समाधानः- सच्ची समझ बिना श्रद्धा यथार्थ होती नहीं और यथार्थ श्रद्धा बिना ज्ञान यथार्थ होता नहीं।

मुमुक्षुः- दोनों संलग्न है ऐसे लेना?

समाधानः- दोनों साथमें संलग्न है।

मुमुक्षुः- तो हमें ज्ञान भी करना और श्रद्धा भी करनी।

समाधानः- ज्ञान और श्रद्धा दोनों साथ ही है। यथार्थ श्रद्धा हो उसे यथार्थ ज्ञान हुए बिना रहता नहीं और जिसे यथार्थ ज्ञान हो उसे श्रद्धा यथार्थ होती ही है।

मुमुक्षुः- पात्र शिष्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करने हेतु कैसा चिंतवन, मनन करे कि जिससे उसे प्रयोजनकी शीघ्र सिद्धि हो? चिंतवन, मनन कैसा होना चाहिये?

समाधानः- निरंतर ज्ञायकका चिंतवन होना चाहिये कि मुझे ज्ञायक ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। सब शुभाशुभ भाव जो विभावभाव है, विभावभावमें जिसे शान्ति नहीं लगती, मेरा स्वभाव ज्ञायक स्वरूप आत्मा ही सुखरूप और आनन्दरूप है। उसका चिंतवन, उसका मनन, उसके लिये उसे बारंबार उसीका अभ्यास, उस जातके श्रुतका चिंतवन, द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्माका द्रव्य क्या? गुण क्या? और पर्याय क्या? उस जातका चिंतवन, मनन (चलना चाहिये)। अनेक प्रकार-से जो प्रयोजनभूत तत्त्व है, उसके विचार, निमित्त-उपादान आदि अनेक प्रकार-से उस तरफका चिंतवन मनन होता है।

मैं ज्ञायक हूँ, परपदार्थका कर्ता नहीं हूँ, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं, अनेक जातका चिंतवन (चले)। लेकिन (वह सब) एक ज्ञायककी सिद्धिके लिये (होता है)। मेरा ज्ञायक चैतन्यतत्त्व, ज्ञायक ज्ञायकरूप कैसे परिणमे, ऐसी भावना उसे निरंतर होती है। चिंतवन, मनन बारंबार उसीका होता है। क्षण-क्षणमें उसका चिंतवन, मनन कैसे रहे, ऐसा उसका प्रयत्न होता है। उसमें वह थकता नहीं है। बारंबार उसीका चिंतवन, मनन होता है।

मुमुक्षुः- मैं एक ज्ञायक हूँ, ऐसा हमें बारंबार विचार करना?

समाधानः- विचारना नहीं, ज्ञायकका स्वभाव पहचानकर विचार करना। ऐसे रटनमात्र- से नहीं होता। परन्तु अंतरमें स्वभावको ग्रहण करने-से होता है। प्रज्ञा-से भिन्न किया, प्रज्ञा-से ग्रहण किया। अंतरमें-से ग्रहण करने-से उसकी सूक्ष्म सन्धिमें-से चैतन्यको भिन्न करनेका बारंबार प्रयत्न करे तो वह भिन्न पड जाता है। उसकी प्रज्ञाछैनी-से भिन्न पडता है। बारंबार उसीका प्रयत्न करे। उसकी पूरी दिशा बदल जाय, ज्ञायक तरफ (हो जाती है)। जो दृष्टि बाहर जाती थी, उस दृष्टिको बारंबर ज्ञायक तरफ, ज्ञायक ओर ही उसकी