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परिणति बारंबार मुडती रहे, अभ्यास रूप-से, यथार्थ तो बादमें होता है।
मुमुक्षुः- प्रत्येक विचारका बहाव ज्ञायक-ओर ही होता है।
समाधानः- ज्ञायक तरफका ही होता है। ज्ञायककी सिद्धि कैसे हो? ज्ञायककी प्रसिद्धि कैसे हो? उस ओर ही (प्रयत्न रहता है)।
मुमुक्षुः- प्रज्ञाछैनी अर्थात भेदज्ञान करना?
समाधानः- हाँ। भेदज्ञान करना। प्रज्ञा-से चैतन्यको ग्रहण करना और प्रज्ञा-से भिन्न करना। विभाव-से भिन्न और स्वभावका ग्रहण करना। एकत्व और विभक्त। पर- से विभक्त, विभाव-से विभक्त और स्वभावमें एकत्व।
मुमुक्षुः- पर-से विभक्त ऐसा चिंतवन करे तो भी उसका स्व तरफ जानेका प्रयत्न है।
समाधानः- पर-से विभक्त चिंतवन करे, यथार्थपने विभक्त चिंतवे तो उसमें स्वकी एकत्वता आ जाती है। लेकिन स्व-तरफका, अस्तित्व तरफके ग्रहणका लक्ष्य नहीं है, और बाहर यह सब अनित्य है, यह सब दुःखरूप है, ऐसा करता रहे (और) अपने अस्तित्वका ग्रहण नहीं है तो वह विभक्तपना भी यथार्थ नहीं है। एकत्व अस्तित्व ग्रहण किये बिनाका विभक्तपना यथार्थ नहीं है।
मुमुक्षुः- एकत्व-विभक्त कहनेमें आता है, लेकिन शुरूआत एकत्व-से ही होती है।
समाधानः- शुरूआत एकत्व-से ही होती है।
मुमुक्षुः- उसमें विभक्त आ जाता है।
समाधानः- उसमें विभक्त आ जाता है।
मुमुक्षुः- एक द्रव्य-से दूसरे द्रव्यकी भिन्नता, ये तो गुरुदेवके और आपके प्रताप- से थोडा-थोडा मुमुक्षुओंको ख्यालमें आता है कि यह द्रव्य भिन्न और यह द्रव्य भिन्न है। परन्तु द्रव्य-गुण और पर्याय, उसमें किस प्रकार भिन्नता करके अनुभव करना, इस विषयमें हमें मार्गदर्शन दीजिये।
समाधानः- एक द्रव्य और दूसरा द्रव्य अत्यंत भिन्न हैं, उन्हें प्रदेशभेद है। वह तो भिन्न है। विभाव अपना स्वभाव नहीं है। शास्त्रमें भेदज्ञान करनेका आता है, विभाव- से विभक्त हो। गुण-पर्यायसे भेदज्ञान करनेका नहीं आता है। भेदज्ञान तो विभाव-से करना है। गुण और पर्यायके लक्षण पहचानकर और आत्मामें अनन्त गुण और पर्याय क्या है, उसका ज्ञान करके, उसके भेदमें अटकना नहीं। उसके भेद विकल्पमें नहीं रुककर, एक अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि रखने-से उसमें जो उसके अनन्त गुण और शुद्ध पर्याय है, वह प्रगट होती है।
उसका-गुण-पर्यायका-भेदज्ञान नहीं करना है, अपितु उसका ज्ञान करना है कि अनन्त गुण आत्मामें (हैं)। आत्मा अनन्त गुणोँ-से गुँथा हुआ अभेद तत्त्व है। उसमें