Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

३२४ अनन्त गुण किस तरह है? ज्ञानका ज्ञान लक्षण, आनन्दका आनन्द लक्षण, चारित्र चारित्ररूप है, (ज्ञान) जाननेका कार्य करे, आनन्द आनन्दका कार्य करे। उसके कार्य पर-से, उसके लक्षण पर-से पहचान सकता है। उसे पहचानकर गुणभेदमें रुकना वह तो विकल्प और रागमिश्रित है। वह तो बीचमें आये रहता नहीं। इसलिये एक चैतन्य पर अखण्ड दृष्टि करके और उस दृष्टिमें स्वयं स्थिर हो तो उसमें-से उसे स्वानुभूति प्रगट होती है। विकल्प टूटकर मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ऐसे सामान्य अस्तित्व पर, निज ज्ञायकके अस्तित्व पर दृष्टिको निःशंक करके उसमें यदि स्थिरता, लीनता, आचरण करे तो स्वानुभूति होती है।

दो द्रव्य भिन्न हैं, ये तो दिखता है। परन्तु भेदज्ञान तो विभाव-से करना है। ये तो ज्ञान करना है। आत्मा अनन्त-अनन्त शक्तिओं-से भरपूर, अनन्त द्रव्य उसके पास आये तो भी अपना अस्तित्व रखता है, ऐसी अनन्त शक्ति है। इससे अतिरिक्त उसमें अनन्त गुण है, अनन्त धर्म हैं, उन सबका ज्ञान करनेके लिये, उसका लक्षण और कार्य पर-से पहचान सकता है। फिर उसके भेद विकल्पमें रुकना नहीं है। वह गुण तो अपना स्वरूप है। अपने स्वरूपसे गुण भिन्न नहीं है। इसलिये उसका ज्ञान करके, गुणभेदमें नहीं रुककर, पर्यायभेदमें नहीं रुककर स्वयं निज चैतन्य पर दृष्टि रखे। मात्र जान ले कि यह गुण है, यह पर्याय है। गुणभेदमें रुकनेका कोई प्रयोजन नहीं है। उसे जाननेका प्रयोजन है। स्वयं अपनेमें स्थिर हो तो स्वानुभूति प्रगट होती है।

जो विभाव है, शुभभाव ऊँचे-से ऊँचा हो तो भी अपना स्वरूप नहीं है। उससे स्वयंको भिन्न करता है। लेकिन इसे तो वह जानता है कि यह पर्याय एक अंश है, ये गुण हैं वे स्वयं एक-एक भेद है, उसे जान लेता है। चैतन्य पर अखण्ड दृष्टि करे, सामान्य पर दृष्टि करे। उसमें जो विशेष पर्याय है वह प्रगट होती है। उसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र उसमें सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन, सर्व गुणके अंश प्रगट होते हैं। और उसमें विशेष लीनता हो, लीनता होने-से मुनिदशा आये। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें स्वयं निर्विकल्प दशामें बारंबार जमता है, उसमें-से वीतराग दशा होती है। उन सबमें भिन्न-भिन्न प्रकार-से अटकनेकी आवश्यकता नहीं है। उसका प्रयोजनभूत जान ले, फिर स्वयं अपनी निःशंक प्रतीति-से लीनता करके आगे बढे तो उसमें-से उसे सम्यग्दर्शन (होता है)। सम्यग्दर्शनके बिना तो कुछ होता नहीं। आगे बढकर लीनता और वीतराग दशा उसीमें प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात आपने कही। एक तो ऐसा कहा कि राग-से भिन्नता (करनी है)। भेदज्ञान राग-से करनेका है। द्रव्य-गुण और पर्यायके भेदको जानकर अवलम्बन ज्ञायकका करने-से भेदका सहज ज्ञान रह जायगा, उसमें अटकना नहीं है।

समाधानः- उसमें अटकना नहीं है। उसका भेदज्ञान नहीं करनेका है। उसका