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ज्ञान, उसका लक्षण पहचानकर (कि) वह अंश है, मैं अंशी हूँ। वह अंश चैतन्यके अंश हैं। उसका ज्ञान करके स्वयं अपनेमें दृष्टिको स्थापित करके उसमें लीनता करनेका प्रयोजन है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान अर्थात विभाव-से बारंबार भिन्न करना।
समाधानः- विभाव-से भिन्न करना वह भेदज्ञान है।
मुमुक्षुः- प्रज्ञाछैन उसी पर पटकनी है न? विभाव और चैतन्यके बीच।
समाधानः- चैतन्य और विभावके बीच प्रज्ञाछैनी (पटकनी नहीं है)।
मुमुक्षुः- गुण और द्रव्यके बीच नहीं पटकनी है।
समाधानः- गुणके बीच प्रज्ञाछैनी नहीं पटकनी है।
मुमुक्षुः- पर्याय और द्रव्यके बीच..
समाधानः- उसमें प्रज्ञाछैनी नहीं है।
मुमुक्षुः- ज्ञान करना।
समाधानः- उसका तो ज्ञान करनेका है।
मुमुक्षुः- पर्याय क्षणिक है, द्रव्य ध्रुव त्रिकाल है ऐसा ज्ञान करना।
समाधानः- ज्ञान करना। पर्याय प्रगट होती है, अंश-अंशमें परिणमति है। आत्मामें अनन्त गुण हैं। सबका ज्ञान करना। उससे भेदज्ञान नहीं करना है।
मुमुक्षुः- सब नया लगता है।
मुमुक्षुः- सत्य है। जैसा कहना हो वैसा कहो।
मुमुक्षुः- परम सत्य। परन्तु इस तरह गुण-पर्याय... भेदज्ञान तो राग-से करना है।
मुमुक्षुः- विभाव यानी उसमें राग और इन्द्रिय ज्ञान दोनों ले सकते हैं?
समाधानः- इन्द्रिय ज्ञान अर्थात उसमें रागमिश्रित ज्ञान आ गया। रागमिश्रित ज्ञान। ज्ञानगुण अपना स्वभाव है। अधूरा ज्ञान है वह रागमिश्रित है। वह उसमें आ जाता है। उसमें ज्ञानका भाग इस ओर लो तो इस ओर आ जाता है, रागका भाग उसे चला जाता है। ज्ञानका भाग चैतन्यकी ओर आ जाता है, रागका भाग विभाव ओर चला जाता है।
मुमुक्षुः- इस ओर, उस ओरमें कुछ...
समाधानः- ज्ञानका भाग चैतन्य तरफ आ जाता है। रागका भाग विभाव तरफ जाता है, पर तरफ जाता है। रागका भाग पर तरफ जाता है, ज्ञानका भाग स्व तरफ आ जाता है। उसमें अपूर्ण या पूर्णका लक्ष्य नहीं रखकर, मैं ज्ञायक ही हूँ। वैसे ज्ञान सो ज्ञान ही है और विभाव सो विभाव ही है। पर तरफ विभावका भाग जाता है।
मुमुक्षुः- रागमिश्रितमें वास्तवमें रागपना है उससे भिन्न पडना है। ज्ञान तो मूल